मर्द का दर्द
पंकज शर्माधड़कनें हैं, मगर आवाज़ नहीं
कहते हैं हम मर्द हैं, पत्थर के दिल
न समझेंगे, न रोएंगे, ये हमारा सिलसिला
लेकिन क्या सच में हम बेखबर हैं?
क्या हमें नहीं होती है, ये पीड़ा की अनुभूति?
दिल में छुपाते हैं दर्द को,
आँखों में छुपाते हैं आंसू को।
समाज कहता है, मर्द नहीं रोते,
मगर ये दिल तो रोज-रोज रोता है।
दहेज का बोझ, मान का दबाव
हर पल लगता है, जैसे कोई जाल
बांध दिया हो, हमको इस समाज में
ना उड़ सकें, ना चल सकें, बंधे हैं इस बंधन में।
कभी पिता के सपने, कभी पत्नी की माँग
हर पल लगता है, जैसे कोई संग
दबाया जा रहा हो, मानों हूं अतुल
और हम चुपचाप सहते हैं, हर एक पल।
कहते हैं हम मर्द हैं, मजबूत हैं
लेकिन क्या कभी सोचा है, कि हम भी टूट जाते हैं?
हम भी रोते हैं, हम भी सहमते हैं
बस ये बात किसी को बता नहीं पाते।
क्यों ये दोहरी मापदंड?
क्यों ये पुरुषों पर ही दबाव?
क्यों नहीं समझते लोग, कि हम भी इंसान हैं
हमारे भी दिल होते हैं, हम भी महसूस करते हैं।
आओ मिलकर बदले ये समाज
जहाँ मर्द को भी मिलें, समान अधिकार
जहाँ मर्द भी कह सके, अपना दर्द
और ना रहे, कोई भी अंधकार।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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