वनिता तन झेल रहा,जन वासना प्रहार
मानव अंतर दानव रुप,वैचारिकी अनैतिक छोर ।
भोग तृप्ति उत्कंठा हित,
अबला शील घात पुरजोर ।
जीर्ण शीर्ण जीवन ज्योत,
विकृत मानवता आकार ।
वनिता तन झेल रहा,जन वासना प्रहार ।।
अंध भौतिक विकास कारण,
परिवर्तित जीवन परिभाषा ।
स्वच्छंद दिनचर्या व्यवहार,
पाश्विक भोग अभिलाषा ।
कुदृष्टि नारी तन मन पर ,
सहमा सा गुड़िया संसार ।
वनिता तन झेल रहा,जन वासना प्रहार ।।
चल चित्र हो या विज्ञापन,
नारी अंग अवांछित प्रदर्शन ।
अति प्रोत्साहन अश्लीलता ,
वस्तु सम श्रृंगार दर्शन ।
परिवेश पट कामुकता अथाह ,
प्रयोग प्रभाव सदृश विष धार ।
वनिता तन झेल रहा, जन वासना प्रहार ।।
अभिवृद्धित दुष्कर्म घटनाएं ,
अति गंभीर सोचनीय बिंदु ।
दिशा दशा प्रकृति विपरित,
जीवन रूप अनैतिकता सिंधु ।
मुरझा रहीं नव कलियां आज,
सिसक रहा घर द्वार परिवार ।
वनिता तन झेल रहा,जन वासना प्रहार ।।
कुमार महेन्द्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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