शिक्षा और दीक्षा
मार्कण्डेय शारदेय:
शिक्षा सांसारिक ज्ञान की ओर ले जाती है तो दीक्षा आध्यात्मिक ज्ञान की ओर।इस कारण शिक्षा अपरा विद्या है तो दीक्षा परा विद्या।शिक्षा में पारंगत हो हम जीविकोपार्जन के क्षेत्र में व्यवस्थित हो यथाकर्म भौतिक सुख से युक्त होते हैं तो दीक्षित हो यथासिद्धि जीवन के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त कर जन्म-जन्मान्तर के मलों को दूर करने की दिशा में बढ़ते, सांसारिक व क्षणिक सुख से अलौकिक व अक्षणिक सुख-शान्ति के मार्ग में अग्रसर होते है।
हमारे यहाँ दीक्षा की दो परम्पराएँ हैं।एक तो साम्प्रदायिक और दूसरी असम्प्रदायिक।साम्प्रदायिक में गुरु किसी सम्प्रदाय-विशेष के प्रायः संन्यासी होते हैं तो दूसरे गृहस्थ एवं स्मार्त।सम्प्रदायी गुरु जहाँ अपने सम्प्रदाय-मार्ग से तत्त्वबोध कराते हैं या उस ओर का मार्ग प्रशस्त करते हैं तो गृहस्थ व स्मार्त गुरु शिष्य की इच्छा के अनुसार देवता-विशेष का मन्त्र प्रदान कर देते हैं।
मुझे लगता है कि ऐसे केवल मन्त्रप्रदान एवं मन्त्रग्रहण से कल्याण सम्भव नहीं।दीक्षागुरु वैसा हों जो शिष्य के लिए स्वानुभूत एवं सिद्ध एक दीक्षामार्ग निश्चित करें, जिससे शिष्य साधना कर सांसारिक मलों से मुक्त हो परम तत्त्व की ओर बढ़ सके।जो कनफुकुआ गुरु अपना ही मार्ग निर्धारित न कर सके हों, वे औरों का क्या कल्याण कर सकते हैं?
हमारी भारतीय परम्परा में जितना मूल्य शिक्षा का है, उससे कहीं अधिक दीक्षा का है।इसके बिना शिक्षा तो अधूरी है ही जीवन भी अधूरा ही रह जानेवाला है।
जीवन-बोध का मार्ग दीक्षा ही है।इसलिए सबको दीक्षित होना ही चाहिए।हाँ: पत्नी का पति गुरु होता है, इसलिए उसे अलग से दीक्षा आवश्यक नहीं।चूँकि दाम्पत्य में बँधकर दोनों एक हो जाते हैं, इसलिए पति के अनुसरण में ही पत्नी की भी क्रिया पूर्ण हो जाती है।गुरु के चयन में सावधानी आवश्यक है।कारण कि उसका सदाचार एवं उसकी योग्यता पर ही अपना आध्यात्मिक विकास सम्भव है। सुने-सुनाए गुरुओं पर ढलने की अपेक्षा जाँचे-परखे गुरुओं में ही श्रद्धा का ठहराव होता है, तभी हम सन्मार्ग पर बढ़कर जीवन का संस्कार कर सकते हैं।
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