रहस्य , भेद , राज
जीवन का रहस्य क्या है ,जानता नहीं है हर कोय ।
समझा नहीं रहस्य जिसने ,
मानव मानव को काॅंटे बोय ।।
रहस्य में ही रहस्य छुपा है ,
समझा नहीं रहस्य का भेद ।
इसी को कहते हैं कलियुग ,
प्रकृति को इसका ही खेद ।।
ईश ने धरा को उद्यान बनाया ,
पशुओं को बना रखा रक्षक ।
पक्षी को सफाईकर्मी बनाया ,
मानव बना जिसका भक्षक ।।
मानव को देखरेख हेतु रखा ,
मानव को हुआ बहुत गुमान ।
होश संभालते होश ये खोया ,
अंधा हुआ पाल अभिमान ।।
अभिमान में ही द्वेष है जोड़ा ,
पदभार भी न सॅंभाल सका ।
मानव बना रक्षक का भक्षक ,
दया प्रेम बंधुत्व न पाल सका ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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