समाज को किसने तोड़ा ?
डॉ राकेश कुमार आर्य
इस समय 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दृष्टिगत सपा ब्राह्मणों को लुभाने का हर संभव प्रयास कर रही है। इसी के चलते सपा समर्थक एक पूर्व आईएएस और इतिहासकार ने एक पोस्ट लिखी है कि ब्राह्मणों ने समाज को तोड़ा नहीं बल्कि जोड़ा है। इसे पढ़कर कई लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई है, क्योंकि अभी तक इस बात का प्रचार प्रसार सपा-बसपा की ओर से विशेष रूप से होता रहा कि देश उस ब्राह्मणवादी व्यवस्था से शासित व संचालित हो रहा है जो देश और देश के समाज के लिए तोड़ने वाली रही है।
ऐसे में यह विचारणीय है कि देश के हिन्दू समाज को किसने जोड़ा और किसने तोड़ा? यदि इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करें तो देश की वैदिक संस्कृति में कहीं भी समाज को तोड़ने की बाल भर गुंजाइश भी नहीं है। इसने पूरे समाज को वर्ण व्यवस्था प्रदान की। इसी वर्ण व्यवस्था को नियमित रूप से समाज में मनु महाराज के द्वारा स्थापित किया गया। मनु आज के जातिवादी ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि वह गुण, कर्म और स्वभाव से पवित्र ब्राह्मण थे। उनकी आत्मा अत्यंत उच्च और महान् थी। उनके महान् विचार न केवल भारतवर्ष को अपितु संसार के अन्य देशों को भी शासित और अनुशासित करते रहे हैं। यहाँ तक कि चीन भी मनु महाराज की मनुस्मृति से हजारों वर्ष तक शासित-अनुशासित रहा है।
मनु महाराज ने जिस वर्ण व्यवस्था को भारतीय समाज में स्थापित किया, उसमें प्रत्येक वर्ण के अलग-अलग कर्तव्य कर्म अर्थात् धर्म को सुनिश्चित किया। यदि मनु महाराज की मनुस्मृति को गंभीरता से पढ़ा जाए और उनके द्वारा प्रतिपादित प्रत्येक वर्ण के कर्तव्य कर्मों पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि प्रत्येक वर्ण एक दूसरे के साथ अन्योन्याश्रित संबंध के साथ जुड़ा हुआ था। किसी भी वर्ण की एक दूसरे के बिना कल्पना तक नहीं की जा सकती थी।
इस प्रकार ऐसी व्यवस्था को देने वाले हमारे वह महान् ऋषि पूर्वज रहे जो अपने आप में अत्यंत उच्च और पवित्र आत्मा के स्वामी थे। वास्तव में इन्हीं लोगों को ब्राह्मण कहा जा सकता है, उस व्यक्ति को नहीं जो पाखंडी व ढोंगी होकर ब्राह्मण जाति में पैदा होकर अपने जातीय अभिमान से दूसरों को छोटा समझता है। जातीय अभिमान के वशीभूत होकर इन्हीं तुच्छ और अपवित्र लोगों ने समाज में वर्ण व्यवस्था को जातीय व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया और निहित स्वार्थ में अपनी स्वयं की पूजा करवाने को प्राथमिकता दी। आज समाज में जितनी अफरा-तफरी और बेचैनी है, वह इन्हीं अपवित्र और पाखंडी लोगों की देन है।
मेरे लिये आचरण बड़ा है, जाति नहीं - महर्षि मनु
भारतीय समाज में ब्राह्मण को सदैव ही पूजनीय माना गया है। इसका कारण यह नहीं है कि वह किसी अच्छे कुल में पैदा हुआ है बल्कि इसका कारण केवल एक है कि वह समाज को सुव्यवस्थित करने की दिशा में सदैव कार्य करता रहता है। वह समाज के लोगों के आहार-विहार, आचार-विचार सभी को सुव्यवस्थित और पवित्र करने का कार्य करता है।
समाज में गाय, गंगा, गीता के प्रति पवित्र भावना रखने का भी एक वैज्ञानिक कारण है, इन सबको बनाने में हमारे ब्राह्मण वर्ग का विशेष योगदान रहा है। उन्होंने वेदों के अर्थों के आधार पर उस प्रत्येक वस्तु को देवता माना है जो हमें कुछ ना कुछ देती है और हमारे जीवन को सुव्यवस्थित करने में सहायता प्रदान करती है।
ब्राह्मण धर्म अर्थात् उच्चतम नैतिक व्यवस्था का प्रतीक है, इसलिए पूजनीय है। वह समाज को पथभ्रष्ट होने से रोकता है और धर्म भ्रष्ट लोगों का मार्गदर्शन करता है, इसलिए भी पूजनीय है। वह प्रत्येक व्यक्ति के हितों और अधिकारों का संरक्षक होता है। यहाँ तक कि राजा को भी वह उचित समय पर परामर्श देकर समाज के प्रत्येक वर्ण और वर्ग के व्यक्ति को उसके अधिकारों को दिलाने का काम करता है। उसकी आत्मा विश्वात्मा होती है। उसकी आत्मा में ईश्वर साक्षात् मार्गदर्शन करते रहते हैं। ऐसे पवित्रहृदयी लोगों का सम्मान करना प्रत्येक समाज का कार्य है। आज भी जो लोग इस भावना से प्रेरित होकर समाज के लिए कार्य कर रहे हैं वह पूजनीय और वंदनीय ही कहे जाएंगे। उनके हृदय को तनिक भी ठेस ना लगे, यह हम सबका दायित्व है। लेकिन जो लोग अपने निहित स्वार्थ में किसी जाति विशेष अर्थात् दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने से रोकते हैं उन्हें वेद का अधिकार देने से रोकते हैं, स्त्रियों को वेद के पठन-पाठन के अधिकार से रोकते हैं और अपने आपको दलितों से अलग रखकर उनके स्पर्श तक से स्वयं को बचाते हैं, वे लोग इस श्रेणी में कभी नहीं आ सकते। ऐसे लोगों ने ही समाज को तोड़ा है।
यदि उपरोक्त आईएएस इतिहासकार की पोस्ट ऐसे लोगों का भी हित संरक्षण करती है या उनका बचाव करती है तो यह उचित नहीं कहा जा सकता। किसी अपराधी को आप सहजता से निरपराध घोषित कर उसे निकल जाने देते हैं तो यह और भी बड़ा अपराध आप करते हैं।
आज आवश्यकता है कि हमारे ब्राह्मण वर्ग में ऐसे ब्रह्मवेत्ता पैदा हों जो वेदों की सुव्यवस्थित धारणा अवधारणाओं को समाज में स्थापित करने का माद्दा रखते हों, जिनके भीतर देशभक्ति का जज्बा हो और जो वेद भक्ति से देश भक्ति और प्रभु भक्ति की त्रिवेणी को बहाकर इनके कर्तव्य कर्मों को करते हुए संसार को उचित मार्गदर्शन दे सकें।
यजुर्वेद में जिन द्विज ब्रह्म तेजधारी ब्राह्मणों की कामना की गई है उनके आगमन के लिए न केवल भारत बल्कि सारा संसार आज बड़ी आशा भरी नजरों से देख रहा है। इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए आज की टूटी फूटी जातिवादी व्यवस्था में से यदि कोई सच्चा ब्राह्मण निकल करके सामने आता है तो यह समस्त भूमंडल उसका ऋऋणी होगा।
क्योंकि ऐसे लोग ही समाज को जोड़ते हैं और ऐसे जोड़ने वालों का आज अकाल पड़ गया है। क्योंकि जातीय अहंकार में सड़ने वाले लोग केवल घरों में बैठे रहकर अपने आपको सोने की खरी अशर्फी मान रहे हैं। जबकि उनके कर्तव्य कर्म पूर्णतया पथभ्रष्ट और धर्म भ्रष्ट व्यक्तियों के से हैं। वेद विरुद्ध आचरण- व्यवहार और आचार विचार या आहार-विहार करके भी जो लोग अपने आप को पूजनीय-वंदनीय मानने का भाव रखते हैं, वह जातीय अहंकारी तो हो सकते हैं, ब्राह्मण नहीं।
किसी भी जाति या कुल में पैदा हो जाना मनुष्य के लिए पूजनीय हो जाने का एकमात्र कारण नहीं है, सच तो यही है कि उसके कर्तव्य कर्म ही उसको पूजनीय बनाते हैं। भारत की वैदिक संस्कृति कर्त्तव्य कर्म में पवित्र व्यक्ति की पूजा का विधान करती है। अपने जातीय अहंकार में सड़े रहकर यदि अतीत में हमने किसी समाज को उपेक्षित किया है या उसके अधिकारों का दमन, शोषण और दलन किया है इसके लिए आज के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीनों वर्ण के लोगों को अपने अतीत के ऐसे कार्यों की समीक्षा करनी चाहिए, उस पर किसी एक पोस्ट के आधार पर पर्दा डालने का काम नहीं करना चाहिए। यह मानना चाहिए कि गलतियाँ हुई हैं और बड़े भयंकर स्तर पर हुई हैं। जिसका खामियाजा इस देश को भुगतना पड़ा है।
अब राजनीति की ओर आते हैं। राजनीतिक कब समाज को तोड़ने का काम करने लगे? कुछ नहीं कहा जा सकता। कभी इसी देश में 'तिलक, तराजू और तलवार-इनको मारो जूते चार' की बात करने वाली बसपा ने जब देखा कि सत्ता केवल किसी एक जाति विशेष के आधार पर प्राप्त नहीं की जा सकती तो उसने अपना स्टैंड बदल दिया। तब उसने अपनी 'सोशल इंजीनियरिंग' के माध्यम से समाज को जोड़ने का काम करने का नाटक किया। वास्तव में वह समाज को जोड़ नहीं रही थी बल्कि अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति कर रही थी। जोड़ तो उसने दलित वर्ग को लिया था और दलित वर्ग में जो उस समय एकता का भाव आया था, वह इसी नारे के चलते आया था कि तिलक, तराजू और तलवार- इनको मारो जूते चार। जब तक बसपा को यह समझ आयी कि राजनीति करने के लिए अन्य वर्गों की भी आवश्यकता है, तब तक समाज का बहुत भारी अहित हो चुका था। समाज में जातिवादी दृष्टिकोण के चलते जातिवाद की दीवारें बहुत ऊँची उठ गई थीं। समाज में यह भाव भी बड़ी तेजी से पैदा हुआ कि देश को और समाज को तोड़ने का काम तथाकथित ब्राह्मणों ने किया है। इसलिए ब्राह्मण वर्ग के प्रति इस नारे ने बहुत अधिक घृणा का भाव पैदा किया। बाद में 'सोशल इंजीनियरिंग' के नारे के चलते ब्राह्मण वर्ग ने बसपा को समर्थन प्रदान किया और उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार बनवा दी, लेकिन बसपा के उपरोक्त नारे ने जो दूरी पैदा की थी वह पाटी नहीं जा सकी।
ब्राह्मणों को साथ लेकर बसपा ने सरकार तो बना ली, परंतु उसने अपनी नीति- नीयत में कोई परिवर्तन नहीं किया। इसी दौरान बसपा समर्थक अनेकों ऐसे तथाकथित विद्वान पैदा हुए जिन्होंने इस देश में मूलनिवासी और ब्राह्मणवादी या हिंदू की एक नई मूर्खतापूर्ण अवधारणा को जन्म दिया। बहुत बड़ी मात्रा में 'ऐसा साहित्य प्रकाशित होने लगा जो समाज को तोड़ने का काम कर रहा था और ऐसा भ्रम और भ्रान्ति पैदा कर रहा था कि भारतवर्ष में जो लोग अपने आपको ब्राह्मण कहते हैं, वही वास्तव में हिंदू हैं और यह सभी हिंदू एससी और ओबीसी वर्ग के लोगों का शोषण करते आए हैं। प्राचीन काल से इन लोगों ने देश के शासकों और अन्य जातियों को मूर्ख बनाया है और अपने हितों की साधना करने में सफल रहे हैं।
इसी प्रकार के भावों ने और साहित्यिक जगत से मिलने वाली ऊर्जा ने फिर एक नई मूर्खता को जन्म दिया, जिसे आज 'जय भीम और जय मीम'- के नारे के रूप में देखा जा रहा है। इस प्रकार की मूर्खता ने देश के समाज को और भी अधिक टूटन का शिकार बना दिया है। अब होना तो यह चाहिए कि देश के प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को इस टूटन को रोकने का काम करना चाहिए। पर हो इसके विपरीत रहा है।
देश के जिस वर्ग से सबसे अधिक यह अपेक्षा की जाती है कि वह देश में टूटन को रोकने का काम करेगा और हिंदू समाज को एकता के सूत्र में बांधेगा वह इस समय अपने जातीय हितों के दृष्टिगत सपा की ओर जा रहा है। इसका अभिप्राय है कि उसे भी सत्ता में जातीय भाव चाहिए। उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वह सारे वर्गों और जातियों को जोड़कर एक सशक्त हिंदू राष्ट्र के निर्माण में सहायता करें पर वह जिस गलती को बसपा के साथ लगकर कर चुका है उसे ही अब सपा के साथ करने की तैयारी करता दिखाई दे रहा है। जबकि 'जय भीम और जय मीम' का सपा भी परोक्ष अपरोक्ष रूप से समर्थन करती है। यदि किसी भी प्रकार की दुःखद परिस्थितियाँ भविष्य में हिंदू-मुस्लिम संघाणे को लेकर बनती हैं तो याद रखना चाहिए कि जय भीम और जय मीम की बात करने वालों के निशाने पर सबसे पहले वही लोग होंगे जो अपने आप को इस समय जातीय अहंकार में सबसे बड़ा समझते हैं।
बहुत अच्छा रहेगा कि देश के संवेदनशील हिंदूवादी लोग इस समय हिंदू एकता का परिचय देते हुए अपने जातीय अहंकार को दरकिनार करें। सबको साथ लेकर चलने में ही लाभ है। यदि टुकड़ों में बँटे रहे तो फिर हमारी मूर्खता और गलतियों का लाभ शत्रु उठाएगा।
इस समय जातीय स्वाभिमान की बात करना उचित नहीं है, बातें राष्ट्रीय स्वाभिमान की होनी चाहिए। उसी से हमारा अस्तित्व संसार में बचा और बना रहेगा। याद रहे कि हमारे सब के पूर्वज एक हैं, हमारी आस्था का केंद्र एक है, हमारे ग्रंथ एक हैं, हमारी ऊर्जा का केंद्र एक है तो हमारे सोचने और काम करने का केंद्र भी एक होना चाहिए। देश और समाज को किसने तोड़ा और किसने जोड़ा? इस पर आत्ममंथन की आवश्यकता है। सही निष्कर्ष निकालकर आज इस बात के लिए परिश्रम किया जाना भी समय की आवश्यकता है कि कौन देश को जोड़ सकता है? और वह कौन से उपाय हो सकते हैं जिससे हम अपने समाज और देश को एक बनाए रखने में सफल हो सकते हैं? इस कार्य के लिए जो भी व्यक्ति सामने आएगा, जो भी अपनी संवेदनाओं का प्रकटन करेगा, वास्तविक ब्राह्मण वही होगा। ऐसे महान् विचारों के धनी को मेरी आँखें चरण स्पर्श के लिए ढूंढ रही हैं।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )क्रमशः
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