बह रहा था भवसागर में तृण सा,
धूल कण इस धरा पर व्यर्थ सा।था नहीं लक्ष्य जीवन का भी कुछ,
ठोकरों में पड़ा बेकार पाषाण सा।
था नहीं कोई ठौर रहने के लिए,
दर्द का दरिया था सहने के लिए।
बस पकड़ ली कान्हा ने अँगुली,
बूँद से दरिया बना बहने के लिए।
मिल गया लक्ष्य प्यास बुझाऊँगा,
सहरा से समन्दर बहता जाऊँगा।
पशु पक्षी मानव धरा तृप्त होगी,
जो बचूँगा सागर में जा समाऊँगा।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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