भारत में भारत विरोधी संस्थान भारत सरकार के खर्च पर चल रहे हैं।
अरुण कुमार उपाध्याय
एक सैन्य अधिकारी लिखित इतिहास पुस्तक में पढ़ा था कि द्वितीय युद्ध के बाद ब्रिटेन में लेबर दल की सरकार आयी तो विंस्टन चर्चिल ने कहा कि लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में तृतीय विश्व के छात्रों की पढ़ाई बन्द की जाये, क्योंकि उससे ब्रिटेन का खर्च बढ़ रहा है। प्रधान मन्त्री एटली ने उत्तर दिया कि परोक्ष रूप में इससे ब्रिटेन को लाभ है। भारत आदि देशों के छात्र यहां से पढ़ कर जायेंगे तो अपने देशों की अर्थ व्यवस्था नष्ट करेंगे जिससे ब्रिटेन को लाभ होगा। पूर्व प्रधान मन्त्री श्री मनमोहन सिंह को कैम्ब्रिज से डाक्टरेट की उपाधि मिलने का कारण था कि उनकी थीसिस के अनुसार ब्रिटिश शासन द्वारा भारत की अर्थ व्यवस्था में बहुत उन्नति हुई। इसका विरोध जापान की नागासाकी विश्वविद्यालय के लेख में हुआ कि १८०० ई. में भारत तथा चीन का विश्व उत्पादन में योगदान ३८ तथा ३१ प्रतिशत था जो १९४७ में क्रमशः १% तथा ७% रह गया। भारत का प्रधानमन्त्री रहते हुए भी उन्होंने भारत की उन्नति के लिए ब्रिटेन को धन्यवाद दिया। ब्रिटेन द्वारा नियुक्त प्रथम प्रधान मन्त्री नेहरू भी आधुनिक बनने के लिए अंग्रेजी आवश्यक मानते थे। स्वयं मनमोहन सिंह तथा प्रधानमन्त्री कार्यालय में केवल वही सचिव बने, जो विश्व बैंक के पूर्व कर्मचारी थे। विश्व बैंक का उद्देश्य स्पष्ट था-ब्रिटेन की नीति अनुसार भारत आदि देशों को ऊपर नहीं उठने देना।
बाद में ब्रिटेन को लगा कि भारत की अर्थ व्यवस्था को नष्ट करने के लिए ब्रिटेन क्यों खर्च करे, उसके लिए भी भारत ही खर्च करे। सम्भवतः इस उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय बना, जहां अभी तक भारतीय विचारों का प्रवेश वर्जित है। वहां २ बार मुझे बुलाया गया, पर बोलने के पहले ही वहां के अध्यापक मारपीट शुरु कर देते हैं, अतः तीसरी बार नहीं गया। वहां ज्ञान मिलना नहीं है, केवल विवाद होगा। भारत विरोधी लेख भी वहां तभी स्वीकृत होता है, जब विदेशी लेखकों द्वारा समर्थित हो।
अन्य विषयों के शोध में भी यह प्रवृत्ति है कि केवल विदेशी सन्दर्भ होना चाहिये। २००३ में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के एक सम्मेलन में गया था। वहां के पुस्तक मेला में संस्कृत पुस्तकें भी पाश्चात्य नकल दीखीं। भारतीय पुस्तक के अनुरोध पर एक पुस्तक मिली-कालिदास, एक भारतीय दृष्टि। उसमें प्रायः ५० विदेशी सन्दर्भ थे, उसके लेखक एक भी भारतीय सन्दर्भ खोज नहीं सके।
१८वी सदी के ओड़िशा पर एक शोध प्रबन्ध उत्कल विश्वविद्यालय के लिए लिखा गया जिसकी प्रति होते हुए देख रहा था। उसके सभी १२६ सन्दर्भ ब्रिटेन के थे।
विज्ञान तथा इंजीनियरिंग में भी वही हाल है। जब तक विदेशी शोध द्वारा प्रमाणित नहीं हो, कोई सिद्धान्त सही नहीं मानते। अंग्रेजी शासन में स्वाभिमान के कारण कुछ लोगों ने स्वतन्त्र शोध किया जो अंग्रेजी नियुक्त शासकों के काल में बन्द हो गया।
राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान ने ऑक्सफोर्ड की उन सभी पुस्तकों का पुनर्मुद्रण किया जिनकी भूमिका में लेखक ने स्पष्ट घोषणा की है कि उनका उद्देश्य वैदिक सभ्यता को नष्ट कर इसाई मत का प्रचार है। विइयम जोन्स तथा एरिक पार्जिटर ने रायल एसियाटिक सोसाइटी कोलकाता से भारतीय संस्कृति का नाश आरम्भ किया जिसे पूर्ण करने के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में १८३१ में बोडेन पीठ की स्थापना हुई। इसका घोषित उद्देश्य भारतीय संस्कृति को नष्ट करना था। २ खण्डों में लौंग्मैन ग्रीन कम्पनी द्वारा १९०४ में प्रकाशित मैक्समूलर की जीवनी में वैदिक सभ्यता को नष्ट करने के आजीवन प्रयत्न का विस्तार से वर्णन है। जॉन म्यूर ने वेद विरुद्ध सबसे अच्छे लेख के लिए १० पाउण्ड का वार्षिक पुरस्कार रखा था। इसके लिए स्वयं एक पुस्तक लिखी ’मत परीक्षा’ जिसमें सत्यार्थी नामक पात्र वेद नष्ट करने के लिए पुराणों का विरोध करता है। सत्यार्थी के विचारों का विस्तार ’सत्यार्थ प्रकाश’ में हुआ। जॉन म्यूर, मैकडोनल, मोनियर विलियम्स, रॉथ, वेबर आदि सभी ने वैदिक सभ्यता नष्ट करने का उद्देश्य स्पष्ट रूप से घोषित किया है।इतिहास का कालक्रम नष्ट करने के लिये उन सभी राजाओं को काल्पनिक घोषित कियाजिन्होंने शक का आरम्भ किया। शंकर बालकृष्ण दीक्षित अपने भारतीय ज्योतिष इतिहास में युधिष्ठिर शक से आरम्भ कर १९ शकों का वर्णन किया है। अन्त में सभी अध्ययन नष्ट करते हुए केवल शालिवाहन शक को माना तथा उसे विदेशी कनिष्क का घोषित कर दिया। कनिष्क विदेशी नहीं, कश्मीर के गोनन्द वंश का ४३वां राजा था जो शालिवाहन शक के १३०० वर्ष पूर्व हुआ था (१२९२-१२७२ ईपू-राजतरंगिणी प्रथम तरंग)। प्रायः सभी ज्योतिष लेखक युधिष्ठिर शक उद्धृत करते हैं, पर अगले ही वाक्य में शक का अर्थ विदेशी काल गणना कहते हैं।
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