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मंजिल है अपनी-अपनी

मंजिल है अपनी-अपनी ,

मार्ग भी हैं अपने - अपने ।
सबके अपने होते विचार ,
सपने सबके अपने-अपने ।।
कोई करता बहुत अन्याय ,
कोई न्याय की माॅंगे भीख ।
कोई प्यार से धन है लूटता ,
कोई डर से रहता है चीख ।।
कहीं अपमानित है निर्धन ,
कोई देता उसको सम्मान ।
कोई अरमान को कुचलता ,
कोई पूरे करता है अरमान ।।
कोई बन जाता है अपराधी ,
अपराध में बनाता पहचान ।
कोई है मानवता दिखलाता ,
ख्याति पाता जग में महान ।।
जहाॅं भला है वहीं पे बुरा है ,
जहाॅं न्याय वहीं यह अन्याय ।
जहाॅं धर्म है वहीं है पाप भी ,
जहाॅं व्यय है वहीं पे आय ।।
हर कुछ भरा है इसी धरा पे ,
इसी धरा पे दुःख और सुख ।
व्यथित सदा है दुनिया सारी ,
मिटता नहीं किसी की भूख ।।
पूर्णतः मौलिक एवं 
अप्रकाशित रचना 
अरुण दिव्यांश 
डुमरी अड्डा 
छपरा ( सारण )
बिहार ।
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