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जप-तप वनाम गप-शप

जप-तप वनाम गप-शप

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
‘छिद्रान्वेषण’ बिलकुल अच्छी आदत नहीं है—किसी को देने के लिए ये उपदेश बहुत ही अच्छा है। लोग दिया भी करते हैं, किन्तु सोचने वाली बात है कि सामने में मच्छरदानी पसरी पड़ी हो, तो उसमें तुम क्या देखोगे या क्या दिखेगा तुमको! — चौकी पर पलथियाते हुए शास्त्रीजी ने सवाल किया ।
मेरा सहज उत्तर था—छिद्रान्वेषण किसी की आदत हो, न हो, जिसका बाहुल्य होगा, अन-आयास वो तो दीख ही जायेगा न शास्त्रीजी ! यानी देखने-समझने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होगी। हाँ, ये बात अलग है कि गौर करने पर उन छिद्र-बहुल वितान में कुछ ऐसा भाग भी दीख जाए, जो छिद्ररहित हो। किन्तु आज सुबह-सुबह ये छिद्रान्वेषण-समस्या कहाँ से आ खड़ी हुई आपके सामने?
शास्त्रीजी ने सिर हिलाते हुए कहा— “ परमात्मा ने आँखें दी हैं देखने के लिए ही न और खोपड़े में दिमाग भर रखा है—सोचने-समझने के लिए ही न ! अब ये बात अलग है कि किसी के पास ये सब कुछ नायाब तोहफ़े हों फिर भी उसका इस्तेमाल ही न करे या करे भी तो फिज़ूल जगहों पर, तो उसके बावत भला क्या कहना-सोचना ! ”
मैंने हामी भरी गर्दन हिलाकर और फिर जिज्ञासा व्यक्त की— कहाँ-क्या दीख गया बाबा ! साफ कुछ कहें तब न मैं भी समझूँ ।
इशारे में हाथ हिलाते हुए बोले— “ जरा सबर करो बच्चा! सबर करो। कहने ही तो आया हूँ। फिर पूछना भी है तुमसे, तुम्हारी क्या राय बनती है इसके बावत। तुम जानते ही हो कि शहर के ऐसे इलाके में मेरा प्रवास है, जहाँ सुबह से देर रात तक लोगों का आना-जाना लगा रहता है। जहाँ घंटे-घड़ियाल भक्तों के हाथों से नहीं बजते... मशीनें बजाती हैं...पुजारीजी भला अपने हाथों को क्यों तकलीफ देने जाएँ...उनका ध्यान तो आरती की थाली में टपकने वाले सिक्कों की खनक में खोया रहता है...एक भी पाँच-दस वाला नहीं गिरा—यही सोचने में। और भक्त इस ताक में रहते हैं कि कब मेरा नम्बर आए और जल्दी से प्रसाद लेकर घर भागें। पंडितजी को पता होना चाहिए कि पूजा का घी, पूजा का सामान की तरह ही पूजा-आरती के लिए पैसे भी खास ही होते हैं। एक-दो का सिक्का धनिया-मिर्चा वाला भी नहीं लेता तो आरती की थाली में डाल दी जाती है। इसकी इसी उपयोगिता के कारण, अभी भी चलन में संजोये हुए है हमारी सरकारें...।
“…भक्त भी एक से एक मिलेंगे। कोई भोलेबाबा से भीख मांगने आता है तो कोई ठगने-फुसलाने...मुझे बेटा दे दो...मुझे बेसुमार दौलत दे दो...मुझे मनमाफिक कुर्सी मिल जाती तो सवासेर लड्डू चढ़ाता... वैष्णवदेवी तो हर साल जाता हूँ, इस बार बाबाधाम काँवर लेकर जाउँगा...यदि पढ़ी-लिखी, सुन्दर और कमाऊ बीबी मिल गई...।
“… इतना ही नहीं, कोई-कोई तो धमकी भी देने आ जाते हैं—बहुत हो गया, अब नहीं आऊँगा कल से। इतने दिनों से हाजिरी लगाये जा रहा हूँ, मन्नत माने जा रहा हूँ और मान-सम्मान, धन-दौलत में तरक्की पड़ोसी की होती जा रही है...पता नहीं उसकी दूसरी आँख कब फोड़ोगे भोलेनाथ...हरदम मेरी बीबी को घूरते रहता है... ।
“…पता नहीं लोगों ने भगवान को समझ क्या लिया है ! कुछ दे—वही देवता...न दे तो कंकड़-पत्थर का ढूह...ये तो हाल है आने वाले भक्त-भक्तिनों का और दूसरी ओर नाक-मुँह रंग-रंगा कर, धोती की जगह साड़ी और रजाईमार्का कुर्ता-बंडी झाड़ कर, ऊपर से बॉडीस्प्रे मारकर, सुबह से ही पंक्तिवद्ध जमात लगाए जपमाली में हाथ डाले बैठे पंडितों को देखो—मेन गेट के ठीक सामने वाले वरामदे में ही बैठेंगे, ताकि यजमान की सीधी नजर उनपर पड़े। जैसे परिचित यजमान का दाखिला हो, होठ पटपटाने लगे—मन्त्र बुदबुदाने लगे...आँखें मूँदकर ध्यान मग्न होने का ढकोसला करने लगे...।
“…ठीक से इनकी गति-विधियों पर गौर करो तो पता चलेगा कि पूस-माघ की कनकनी में ज्यादातर तो चुरकी धोकर ही ऊँ अपवित्रः पवित्रोवा...से काम चला लेते हैं। या कहें कि ये वुनियादी मन्त्र भी कायदे से बोलना नहीं आता। जप-तप के नाम पर सिर्फ गप-शप चलते रहता है। सरकारी दफ्तर की तरह यहाँ भी ड्यूटी बजाने आ जाते हैं। न आचार न विचार न संस्कार। और ये सब बने तो कहाँ से...न आहार न विहार न व्यवहार...कुछ भी सही नहीं, फिर संस्कार तो बहुत दूर की कौड़ी है। प्याजी पकौड़े और अदरख-लहसुन की चटनी के बिना जाड़े में गर्मी ही नहीं आयेगी शरीर में। गुटका-खैनी हमेशा मुँह की शोभा बढ़ाते ही रहेंगे। बीच-बीच में मौका देखकर, लघुशंका के बहाने बगल में नदी तरफ निकल जायेंगे और जम कर चिलम फूँकेंगे, तो कोई पौवा के घूँट मारेंगे। इनके श्रीमुख से वैदिक मन्त्र या कि स्तोत्र पाठ कभी ध्यान से सुन लें तो देवगुरु बृहस्पति भी बेहोश हो जाएँ। मजे की बात ये है कि इनकी अपनी-अपनी कर्मकाण्ड-विधियाँ है, जिनमें सत्कर्म नदारथ, सिर्फ काण्ड शेष है। ये इतने महान गुणज्ञ हैं कि श्राद्धपारिजात से विवाह करा दे सकते हैं या विवाहवृन्दावन से श्राद्ध सम्पन्न हो जा सकता है। और एक महत्त्वपूर्ण बात है कि बाबा का बाना बना लेने पर जननाशौच तो दूर मरनाशौच भी नहीं लगता यानी दाढ़ी छंटती-कटती रहे बाजारु हवा का रूख देख देखकर, किन्तु सिर के बाल तेल चुपड़े घने लम्बे ही होने चाहिए । इससे यजमान ज्यादा आकर्षित होता है। यजमानिनों को भी लम्बे बाल, काले केश, मोछमुँडे बाबा अधिक भाते हैं। दरअसल भेद और उलझन तो द्वैत में है न। द्वैत से ऊपर उठते ही सारा सांसारिक भेदाभास खतम। फिर क्या फर्क है...सारे कर्म तो विष्णु में ही जाकर मिलते हैं न, जैसे सारी नदियाँ समुद्र में..।
“…एक और खास बात नित्य प्रायः देखने को मिलती है—विशेषकर दोपहर के समय, जब सुबह से किसी यजमान का चल रहा कर्मकाण्ड अब समाप्ति पर होता है—एक साथ नदी में भूखे बिलबिलाते कुत्तों का भों-भों और इधर मन्दिर परिसर में पंडितों का तूँ-तू-मैं-मैं समवेत स्वरों में गूँजता है। छीना-झपटी, खींचा-तानी, ठेला-ठेली, धक्का-मुक्की यजमानों की पंचायती से सुलझती भी नहीं है। वे सुलझाने का प्रयास भी नहीं करते, क्योंकि उन्हें पता है कि ये सब इनका रोज का तमाशा है...।
“… तुम्हें लगता होगा कि स्वयं ब्राह्मण होकर, ब्राह्मणों का छिद्रान्वेषण कर रहा हूँ। किन्तु सच पूछो तो इनका छेद भला मैं कितना देखूँगा? इस विषय में तो कविवर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ एवं मैथिलीशरण गुप्त जी ने अब से बहुत पहले ही बहुत कुछ कह दिया है। मैं विशेष क्या कह सकता हूँ ! क्या कर सकता हूँ !
“…समाज का सिरमौर, दिशा-निर्देशक, पथ-प्रदर्शक विप्र-वर्ग क्यों इतना संस्कारहीन होता जा रहा है, क्यों इतना तेजहीन होता जा रहा है, क्यों इतना मतिहीन होता जा रहा है...मैं व्यथित हूँ इनकी दयनीय स्थिति से...। ”
शास्त्रीजी का तेजोदीप्त आनन सच में क्लान्त हो चुका था—इन बातों को कहते हुए। कई बार लोगों को समझाने की भी कोशिश किए, किन्तु अपमान और तिरस्कार के सिवा कुछ हासिल न हुआ। वे दुःखी हैं वर्तमान को देखकर और चिन्तित हैं भविष्य को लेकर। शास्त्रीजी की चिन्ता और खिन्नता बिलकुल जायज़ है—हंस वाहिनी सरस्वती का उपासक संस्कार विहीन होकर, उलूक वाहिनी लक्ष्मी के पीछे भागने लगेगा, तो उसकी यही दशा होगी। महर्षि गौतम का शाप तो पीछा किए ही हुए है। परिणातः लोक और परलोक दोनों ही विकृत हो रहे हैं उनके अपने ही कर्मों से।
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