चरित्र का संकट
ऋषि रंजन पाठकजो था आदर्श, वह अब संदिग्ध नजर आता है,
क्योंकि पलक झपकते ही, चरित्र बदल जाता है।
एकदम अचानक से, एक बदलाव सा आता है,
और एक चरित्रवान इंसान चरित्रहीन हो जाता है।
लोगों के दिलों में जो कभी सत्य के सूरज थे,
वो अब छायाओं में खोने लग जाते हैं।
एक त्वरित फैसला, एक छोटी सी गलती,
और जीवन के सिद्धांत उलट-पलट जाते हैं।
नैतिकता की डोर अगर ढीली हो जाए,
तो अच्छाई का मार्ग बदलने लगता है।
जो कभी आदर्श था, अब सवालों में घिरता है,
एक पल की चूक, पूरी पहचान खो देता है।
कभी जो प्रेरणा था, वह अब भ्रम सा लगता है,
सिद्धांतों की नींव पर सवाल उठने लगता है।
जिसे आदर्श मानते थे, अब धुंधला दिखाई देता है,
मूल्य और नैतिकता का पलड़ा अचानक बदलता सा लगता है।
हर कदम अब भारी सा महसूस होता है,
एक गलत दिशा में जाने का डर हर पल सताता है।
सच्चाई और झूठ के बीच की रेखा अब धुंधली होती जा रही है,
क्या यह हमारी पहचान का अंत है, या सिर्फ एक और संघर्ष की शुरुआत है?
जीवन के हर मोड़ पर बदलाव का भय है,
सिद्धांतों की स्थिरता अब एक सपना सा लगता है।
क्या हम फिर से अपने आदर्शों को पहचान पाएंगे,
या बदलते हुए समय के साथ अपनी पहचान को खो बैठेंगे?
साधारण सी चूकें, जीवन के संतुलन को हिला देती हैं,
जो कुछ भी स्थिर था, वह अब अचानक से ढल जाता है।
क्या आदर्शों का अस्तित्व सचमुच खत्म हो जाता है?
या यह समय का खेल है, जो हमें फिर से नया रास्ता दिखाता है?
हर गलती की गहराई हमें नई दिशा दे सकती है,
यह सच है कि संदेह, विश्वास के पंखों को तोड़ सकता है।
फिर भी, अगर हम संकल्पित रहें, अपनी राह खोज सकते हैं,समझते हुए कि गिरने से ही हम फिर से उठ सकते हैं।
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