मोबाइल का शिकंजा
ऋषि रंजन पाठकहमारी आंखों के सामने,
यह कैसा जाल बुन रहा है,
यह मोबाइल, यह चमकीला ख्वाब,
धीरे-धीरे हमारे बच्चों को निगल रहा है।
जहां कभी गूंजती थी हंसी-ठिठोली,
अब वहां सन्नाटे की है टोली।
गली-मोहल्ले के खेल छूट गए,
बस गेम्स के स्तर टूट गए।
हंसती थी जो हंसी कभी घर के आंगन में,
अब खो गई है चैट्स और गेम्स के बंदन में।
पुकारती मां की आवाज अनसुनी रह जाती है,
जब उंगलियां स्क्रीन पर भागती जाती हैं।
न कंचों की खनक, न पतंगों की उड़ान,
न कहानियों की महक, न खेलों का मैदान।
बस स्क्रीन पर सपनों का नकली जहान,
जहां हर खुशी है, पर हर पल वीरान।
आंखें जो सपनों से भर जाती थीं,
अब स्क्रीन की चमक से थक जाती हैं।
वो आसमान तकने का वक्त कहां,
अब बस इंस्टा और यूट्यूब की दास्तां।
कहां गया वो दादी का प्यार,
जो सुनाती थी रात को अनमोल विचार।
अब कहानियां ऐप्स में सिमट गईं,
और यादें स्क्रीन में बंट गईं।
मां की पुकार गूंजती रह जाती है,
जब बच्चा मोबाइल में खो जाता है।
न वो स्पर्श, न वो अपनापन,
बस आभासी दुनिया का है संगम।
किताबें धूल खा रही अलमारी में,
और दोस्ती मर रही तन्हाई में।
जहां कभी गूंजता था खेलों का शोर,
अब सिर्फ चार्जर की आवाज घोर।
चलो, अब जागें, कुछ बदलें,
इन मासूम जिंदगियों को संभालें।
उन्हें दिखाएं फिर से असली जहान,
जहां बहता है खुशियों का सामान।
आंगन को फिर से महकाएं,
बचपन को उसकी राह दिलाएं।
क्योंकि यह मोबाइल का जादू,
धीरे-धीरे बचपन को निगल रहा है।
दौड़ने दें उन्हें, खिलखिलाने दें,
उनकी दुनिया में रंग लौटाने दें।
क्योंकि यह मोबाइल का चकमक ख्वाब,
यह कैसा जाल बुन रहा है,
यह मोबाइल, यह चमकीला ख्वाब,
धीरे-धीरे हमारे बच्चों को निगल रहा है।
जहां कभी गूंजती थी हंसी-ठिठोली,
अब वहां सन्नाटे की है टोली।
गली-मोहल्ले के खेल छूट गए,
बस गेम्स के स्तर टूट गए।
हंसती थी जो हंसी कभी घर के आंगन में,
अब खो गई है चैट्स और गेम्स के बंदन में।
पुकारती मां की आवाज अनसुनी रह जाती है,
जब उंगलियां स्क्रीन पर भागती जाती हैं।
न कंचों की खनक, न पतंगों की उड़ान,
न कहानियों की महक, न खेलों का मैदान।
बस स्क्रीन पर सपनों का नकली जहान,
जहां हर खुशी है, पर हर पल वीरान।
आंखें जो सपनों से भर जाती थीं,
अब स्क्रीन की चमक से थक जाती हैं।
वो आसमान तकने का वक्त कहां,
अब बस इंस्टा और यूट्यूब की दास्तां।
कहां गया वो दादी का प्यार,
जो सुनाती थी रात को अनमोल विचार।
अब कहानियां ऐप्स में सिमट गईं,
और यादें स्क्रीन में बंट गईं।
मां की पुकार गूंजती रह जाती है,
जब बच्चा मोबाइल में खो जाता है।
न वो स्पर्श, न वो अपनापन,
बस आभासी दुनिया का है संगम।
किताबें धूल खा रही अलमारी में,
और दोस्ती मर रही तन्हाई में।
जहां कभी गूंजता था खेलों का शोर,
अब सिर्फ चार्जर की आवाज घोर।
चलो, अब जागें, कुछ बदलें,
इन मासूम जिंदगियों को संभालें।
उन्हें दिखाएं फिर से असली जहान,
जहां बहता है खुशियों का सामान।
आंगन को फिर से महकाएं,
बचपन को उसकी राह दिलाएं।
क्योंकि यह मोबाइल का जादू,
धीरे-धीरे बचपन को निगल रहा है।
दौड़ने दें उन्हें, खिलखिलाने दें,
उनकी दुनिया में रंग लौटाने दें।
क्योंकि यह मोबाइल का चकमक ख्वाब,
धीरे-धीरे मासूमियत को निगल रहा है।
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