सकरात और पौस माघ का जाड़ा पाला।
जय प्रकाश कुवंर
आज देश भर में मकर संक्रांति का पर्व मनाया जा रहा है। इसे दक्षिण भारत में पोंगल नाम से जाना जाता है। बिहार प्रदेश में इसे सकरात और खिचड़ी नाम से भी जाना जाता है। आज से खरमास मास का अंत हो जाता है, अतः इसे उत्तरायण पर्व के नाम से भी जाना जाता है। खान पान की दृष्टि से इसमें मुख्यतः स्नान करने के बाद दिन में तिलकुट, लाई तिलवा और दही चुड़ा खाने का रिवाज है और रात में खिचड़ी खाया जाता है। गरीब अमीर सभी अपने अपने हैसियत के हिसाब से घर में दही चुड़ा मिलजुलकर खाते हैं और सबको खिलाते हैं। चूकि आज से खरमास खत्म हो जाता है, अतः फिर शादी ब्याह का लग्न शूरू हो जाता है। वैसे यह पर्व पौस माघ के महीने में आता है, जब उत्तर भारत के अनेकों हिस्से में कड़ाके की ठंड पड़ रही होती है।
दक्षिण भारत में इस समय उत्तर भारत जैसा ठंडी का प्रकोप नहीं रहता है।
गरीब, जिसके पास ढंग का रहने का घर एवं समुचित पहनने ओढ़ने का उनी वस्त्र न हो, उसके लिए यह पर्व उत्साह से ज्यादा तकलीफ वाला होता है।
रमेश आज सुबह ही बंगलोर से अपने गाँव बिहार के शिवपुर आया है। उसके माता पिता और बहन की बड़ी इच्छा थी कि वह सकरात के अवसर पर अपने घर आए और पुरा परिवार एक साथ मिलकर यह पर्व मनाये। उसके पिता की विशेष इच्छा थी कि उसका बेटा रमेश, जो उच्च शिक्षा लेने और नौकरी ज्वाइन करने के बाद एक लम्बे समय से घर गाँव नहीं आया हुआ है, वह सकरात खिचड़ी के मौके पर अपने घर आये और अपने पिता द्वारा पाली गयी देशी गाय का दही, उसके माता एवं बहन द्वारा अपने हाथ से कुटकर तैयार किये गए चुड़ा के साथ खाये। अपने माता पिता का सम्मान करते हुए, रमेश सकरात पर्व मनाने आज घर आया है। लेकिन बंगलोर की तुलना में यहाँ अपने बिहार के गाँव में ठंडी का प्रकोप देख हैरान है।
रमेश के पिता चन्द्र कांत एक गरीब मजदूर हैं, जिनके पास सिवाय एक छोटे से खपरैल घर के और कुछ नहीं है। उनके परिवार में उनकी पत्नी राधा, के अलावा एक बेटा रमेश और एक बेटी राधिका हैं। चन्द्र कांत मजदूरी के साथ खाली समय में भाड़े पर रिक्शा चलाने का काम करते हैं। इसी छोटी मोटी आमदनी के सहारे वो अपना परिवार चलाते हैं और रमेश को ग्रेजुएशन तक पढ़ाया है। ग्रेजुएशन करने के बाद रमेश ने सरकारी नौकरी ज्वाइन कर लिया है और बंगलोर में रहता है। उसकी बहन राधिका मैट्रिक तक की पढ़ाई करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी और अब घर के काम में अपने माँ का हाथ बंटाती है। रमेश की नौकरी अभी नयी नयी है और उसके पिता को अपनी बेटी का ब्याह करना है, अतः चंद्रकांत अभी भी मजदूरी और रिक्शा चलाने का काम करते हैं।
अपने बेटे रमेश को सकरात के मौके पर घर बुलाने के पीछे उनका एक और उद्देश्य यह भी है कि बेटी के ब्याह के बारे में अपने बेटे से सलाह मशवरा करना और साथ साथ पर्व मनाना। क्योंकि सकरात के बाद खरमास खत्म हो रहा है और लग्न शूरू हो रहा है।
चूंकि अनेक वर्षों के बाद रमेश अपने घर आया है, अतः अपने घर की परिस्थितियों से आज रूबरू होने का प्रत्यक्ष मौका मिला है। वह शहर में रह कर पढ़ाई करने के दौरान इतना तो जरूर जानता था कि उसके पिता मिहनत मजदूरी करके उसे पढ़ा रहे हैं। परंतु इस हकीकत से वह अनजान था कि इस तरह अपने शरीर को कष्ट देकर, एवं गर्मी, बरसात, जाड़ा पाला सहकर उसके पिता उसकी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं। आज जब अपने घर आकर अपने माता पिता के शरीर पर के इस पौस माघ के ठंडी में भी पहने हुए कपड़ों को देखता है तो वह फुट फुट कर रोने लगता है, और सकरात पर्व की सारी खुशी मन से उतर जाती है। सकरात पर्व के लिए खाने से पहले स्नान करने के लिए जब उसके पिता शरीर के उपर से पतली चादर उतार कर फटी हुई सुती गंजी उतारते हैं तो उसे देखकर रमेश का मन हाय हाय कर उठता है। वह सोचता है कि लानत है उसके पैंट शर्ट के पहनावे पर, जिसका पिता इस प्रकार का फटा वस्त्र पहनता है। वह भारी मन से सकरात पर्व मना कर तथा कुछ जरूरी वस्त्र माता पिता और बहन के लिए खरीद कर शहर जाने की तैयारी कर लेता है।
अपनी बहन की शादी के बारे में पिता द्वारा चर्चा चलाने पर रमेश पिता को आश्वस्त करता है कि वो इस बारे में ज्यादा न सोचें। बहन की शादी करना अब पिता का दायित्व नहीं, बल्कि उसके भाई का अब दायित्व है। अपनी शादी के बारे में वह अपने माता पिता से साफ तौर पर बता देता है कि वह जब तक अपनी बहन की शादी नहीं कर देगा, तब तक खुद की शादी के बारे में सोचेगा भी नहीं। इस तरह वह सकरात पर्व पर एक वादा करके बंगलोर शहर अपनी नौकरी ज्वाइन करने चला जाता है।
दो साल तक रमेश कठिन परिश्रम और ओभर टाइम आदि नौकरी में करके पैसे इकट्ठा करके सुयोग्य लड़के से अपनी बहन का शादी कर देता है। अब वह अपने माता पिता को अपने साथ शहर में रखता है और खुशहाली से जीवन व्यतीत कर रहा है।
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