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कुम्भपर्वःःज्ञातव्य और ध्यातव्य

कुम्भपर्वःःज्ञातव्य और ध्यातव्य

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
‘कुम्भ’ शब्द का समान्य अर्थ घड़ा ही है, किन्तु इसमें मुख्यरूप से लोकपात्रता निर्माण की रचनात्मक शुभभावना एवं मंगलकामना सहित मानव-उद्धार की प्रेरणा निहित है। यथा—
कुं पृथ्वीं भावयन्ति संकेतयन्ति भविष्यत्काल्याणादिकाय महत्याकाशे स्थिताः बृहस्पत्यादयो ग्रहाः संयुज्य हरिद्वारप्रयागादितत्तत्पुण्यस्थान विशेषानुद्दिश्य यस्मिन् सः कुम्भः।।
कुम्भो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योन्यां गर्भो अन्तः । प्लाशिर्व्यक्तः शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधां पितृभ्यः।। (शुक्लययुर्वेद १९।८७) एवं
जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून् । बिभेद गिरिं नवभिन्न कुम्भाभा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः।। (ऋग्वेद १०।८९।७)
उक्त वचनों से स्पष्ट है कि कुम्भपर्व कोई अधुनातन पर्व नहीं, प्रत्युत अनादि काल से प्रचलन में है।
कुम्भपर्व सनातन धर्मावलम्बियों को अपने परम एवं चरम लक्ष्य की ओर प्रेरणा का महान स्रोत है। इसकी महत्ता और उपादेयता स्कन्दपुराण एवं विष्णुपुराण के इन वचनों से स्पष्ट है— सहस्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च। वैशाखे नर्मदा कोटिः कुम्भस्नानेन तत्फलम् ।। तथा अश्वमेधमहस्राणि वाजपेयशतानि च । लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत्फलम्।। (कार्तिक महीने में हजार बार, माघ में सौ बार, वैशाख में करोड़ वार गंगा-नर्मदादि में स्नान करने से जो फलप्राप्ति होती है, वही फल एक बार कुम्भस्नान करने से प्राप्त हो जाता है। तथा हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वायपेय यज्ञ, लक्ष पृथ्वी-परिक्रमा करने से जो फल प्राप्ति होती है, वही फल एक बार कुम्भ-स्नान से प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्मवैवर्तपुराण के वचन हैं— अश्वमेधफलं चैव लक्षगोदानजं फलम्। प्राप्नोति स्नानमात्रेण गोदायां सिंहगे गुरौ।। (देवगुरु बृहस्पति जब सिंहस्थ हों उस समय गोदावरी स्नान मात्र से मनुष्य अश्वमेधयज्ञ एवं एक लाख गौदान का पुण्य अर्जित कर लेता है।)
ब्रह्माण्डपुराण में तो और भी विस्तार से कहा गया है— यस्मिन् दिने गुरुर्याति सिंहराशौ महामते। तस्मिन् दिने महापुण्यं नरः स्नानं समाचरेत् । यस्मिन् दिने सुरगुरूः सिंहराशिगतो भवेत् । तस्मिन्सतु गौतमीस्नानं कोटिजन्माघनाशनम् ।। तीर्थानि नद्यश्च तथा समुद्राः क्षेत्राण्यरण्यानि तथाऽऽश्रमाश्च । वसन्ति सर्वाणि च वर्षमेकं गोदातटे सिंहगते सुरेज्ये।।
स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड में कुम्भोत्पत्ति का विशद प्रसंग है। अन्यान्य पुराणों सहित महाभारत में भी कुम्भपर्व की महत्ता दर्शायी गई है।
ध्यातव्य है कि महाभारत आदिपर्वान्तर्गत आस्तीतपर्व अध्याय २४ से ३४ तक अमृतकुम्भहरण का विस्तृत प्रसंग है। किन्तु ये कुम्भ तो वही है—समुद्रमन्थनोपरान्त आयुष्यकर्ता भगवान धन्वन्तरि प्रदत्त अमृतघट; परन्तु उपरोक्त वैदिक-पारम्परिक महाकुम्भपर्व से इसका सम्बन्ध नहीं है। प्रत्युत वैनतेय गरुड़ और कद्रुनन्दन सर्पादि के रोचक प्रसंग से सम्बन्धित आख्यान है।
कुम्भपर्व का संक्षिप्त प्रसंग है कि देव-असुर संयुक्त प्रयास से समुद्रमन्थन का पुनीत कार्य सम्पन्न तो हुआ, किन्तु देवताओं के संकेत से ऐन समय पर इन्द्रपुत्र जयन्त अमृतकलश को उड़ा ले गए। तदनन्तर दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यगण जयन्त का पीछा किए। संयुक्त प्रयास से प्राप्त अमृत पर अपने-अपने अधिकार सिद्धी हेतु देव गणनानुसार बारह दिनों तक देवासुर संग्राम चला। अन्ततः मोहिनीरूपधारी विष्णु ने यथाधिकार अमृत प्राशन कराया। राहु-केतु, सूर्य-चन्द्र आदि रोचक प्रसंग भी इसी घटनाक्रम का अंग है।
युद्ध के समय चन्द्रमा ने अमृत का प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट भंजित होने से और बृहस्पति ने दैत्यों द्वारा घट अपहृत होने से रक्षा की। चुँकि इन तीनों का महत् योगदान रहा, इस कारण इन तीनों के गोचरसंचरण क्रम में पुनः-पुनः नभमण्डल में संयोग होने की स्थिति में ही कुम्भपर्व घटित होता है।
चुँकि देवगणनानुसार बारह दिनों तक उक्त देवासुरसंग्राम चला था, इस कारण कुम्भपर्व भी बारह ही होते हैं, जिनमें आठ देवादि लोकों में एवं मात्र चार कुम्भ भूलोक में फलिभूत होता है—देवानां द्वादशाहोभिर्मर्त्यैर्द्वादशवत्सरैः। जायन्ते कुम्भपर्वाणि तथा द्वादश संख्यया ।। पापापनुत्तये नृणां चत्वारो भुवि भारते। अष्टौ लोकान्तरे प्रोक्ता देवैर्गम्या न चेतरैः।।
हालाँकि इनके साथ ही देवेन्द्र के भय से शनि का भी योगदान रहा अमृत-घट-रक्षण में। किन्तु इन्हें विशेष महत्व नहीं दिया गया यहाँ।
चतुरः कुम्भांश्चतुर्धा ददामि। (अथर्ववेद ४।३४।७ में पितामह ब्रह्मा के वचन—हे मनुष्यों ! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आमुष्मिक सुखों को देनेवाले चार कुम्भपर्वों का निर्माण कर, चार स्थानों में प्रदान कर रहा हूँ।) से स्पष्ट है कि भूलोक में उक्त चार कुम्भपर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में होते हैं— गंगाद्वारे, प्रयागे च धारागोदावरीतटे । कुम्भाख्येयस्तु योगोऽयं प्रोच्यते शङ्करादिभिः।।
उक्त चार स्थानों में कुम्भपर्व बारह वर्षों पर हुआ करता है— पूर्णः कुम्भोऽधिकाल अहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्तः । स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहुः परमे व्योमन्।। (अथर्ववेद १९।५३।३) ( हे सन्तगण ! पूर्ण कुम्भ बारह वर्षों के बाद आता है, जिसे हम अनेक बार देखते हैं। कुम्भ उस कालविशेष को कहते हैं, जो महान् आकाश में ग्रह-राश्यादि के योग से होता है)।
ये भिन्न-भिन्न ग्रह-नक्षत्र-राश्यादि-संयोग इस प्रकार हैं— पद्मिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ। गंगाद्वारे भवेद्योगः कुम्भनामा तदोत्तमः ।। (देवगुरु बृहस्पति कुम्भराशि पर और सूर्य मेष राशि पर संचरित हों, उस समय हरिद्वार में कुम्भयोग घटित होता है)।
मेषराशिं गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ । अमावस्या तदा योगः कुम्भाख्यतीर्थनाथके।। (देवगुरु बृहस्पति मेष राशि पर एवं चन्द्रमा-सूर्य मकर राशि पर स्थित हों तो तीर्थराज प्रयाग में कुम्भयोग घटित होता है)।
मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ । उज्जयिन्यां भवेत् कुम्भः सदा मुक्तिप्रदायकः।। (सूर्य मेष राशि पर और बृहस्पति सिंहराशि पर हों तो उज्जैन में कुम्भयोग घटित होता है)। तथा
सिंहराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ। गोदावर्या भवेत्कुम्भो भक्तिमुक्तिप्रदायकः।। (सूर्य तथा बृहस्पति दोनों ही जब सिंहराशि पर विराजमान हों तो नासिक में कुम्भपर्व घटित होता है)।
उक्त चार स्थानों में भी हरिद्वार और प्रयाग को विशेष माना गया है। इन स्थानों में कुम्भ निमित्त तीन स्नान होते हैं। हरिद्वार में कुम्भ स्नान महाशिवरात्रि से प्रारम्भ होता है। द्वितीय स्नान चैत्र अमावस्या को होता है। एवं तृतीय स्नान चैत्र पूर्णिमा(अथवा वैशाख कृष्ण प्रतिपदा)को होता है। यानी जिस दिन देवगुरु बृहस्पति कुम्भराशि पर और सूर्य मेष राशि पर संचरित हो रहे हों। यथा— वसन्ते विषुवे चैव घटे देवपुरोहिते।
गंगाद्वारे च कुम्भाख्यः सुधामेति नरो यतः।।
इसी भाँति प्रयागराज में भी कुम्भस्नान तीन ही होते हैं। यहाँ प्रथम स्नान मकरसंक्रान्ति को, द्वितीय स्नान माघ अमावस्या (मौनी अमावस्या) को एवं तृतीय स्नान माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) को सम्पन्न होता है। यथा— मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च बृहस्पतौ । कुम्भयोगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यतिदुर्लभः।।
पुराणों में कुम्भस्नान की संक्षिप्त व विस्तृत विधि भी निर्दिष्ट है। सामान्य पूजापद्धतियों में कलशस्थापन सम्बन्धी जो मन्त्र, ध्यान, प्रार्थनाएं दी गई हैं, उनका प्रयोग कुम्भस्नान के समय अवश्य करना चाहिए। साथ ही दोनों हाथों से कुम्भमुद्रा का प्रदर्शन करे—दक्षाङ्गुष्ठं परेऽङ्गुष्ठे क्षिप्त्वा हस्तद्वयेन च। सावकाशां मुष्टिकां च कुर्यात् सा कुम्भमुद्रिका।। उक्त कुम्भ की हस्तमुद्रा में अमृत की भावना करे एवं ध्यान मन्त्रों का वाचिक वा मानसिक उच्चारण करे। इस विधि से स्नान अत्यधिक फलीभूत होता है।
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि कुम्भपर्व अति प्राचीन है। किन्तु वर्तमान समय में इसका जो स्वरूप दर्शित हो रहा है, उसके प्रवर्तक आद्यशंकराचार्यजी हैं। उनके उद्भवकाल तक बुद्ध का आगमन हो चुका था । वैदिक सनातन संस्कृति पर एक ओर बुद्धत्व का प्रभाव गहरा रहा था, तो दूसरी ओर कलिकाल अपना वर्चश्व-विस्तार में लगा था। सनातनधर्म साम्प्रदायिक विखण्डनों का शिकार हो चुका था। सामाजिक सुव्यवस्था की सुदृढ़ भित्ती या कहें सनातन संस्कृति का मेरुदण्ड— वर्णाश्रम व्यवस्था दुर्बल पड़ने लगी थी। एक ही तत्व के अनेक स्वरूपावलम्बियों के बीच मतभेद गहराने लगा था। साधना-पद्धतियों पर व्यक्तिविशेष या वर्गविशेष का वर्चश्व बढ़ने लगा था। जिसका भावी परिणाम राष्ट्र ही नहीं, पूरे भूमण्डल के लिए भयावह होने की आशंका स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगी थी।
ऐसे विकट काल में भगवान आद्यशंकर ने सौर, शैव, शाक्त, वैष्णव, गाणपत्यादि मार्गावलम्बियों के अन्तर्विरोधों के समूल उन्मूलन के उद्देश्य से भारतवर्ष के चार मुख्य स्थानों पर चारोधाम की स्थापना करते हुए तीर्थाटन के महत्व पर प्रकाश डाला। कुम्भमेला भी उन्हीं सत्प्रयासों में एक है। नैमिषारण्यादि तीर्थों में पौराणिककाल के सन्त समागमों की भाँति घोर कलिकाल में भी समय-समय पर सन्त समागम होते रहें, ताकि भारत ही नहीं, पूरे विश्व का कल्याण हो सके।
आद्यशंकाराचार्यजी ने तो अपना काम कर दिया—विखण्डित सनातनियों को एक सूत्र में पिरोने का काम, किन्तु विचारणीय ये है कि क्या हम विगत ढाईहजार वर्षों में वही रह गए हैं—जैसा बनाने का प्रयास आद्यशंकर ने किया था?
आज की स्थिति उस समय से कहीं अधिक भयावह हो चुकी है। विखण्डन की विस्फोस्टक स्थिति में हम पहुँच चुके हैं। कुम्भपर्व का आयोजन तो बारह के वजाय छः-छः वर्षों पर होने लगा है। कुम्भ, अर्धकुम्भ, पूर्णकुम्भ और महाकुम्भ चार नाम हो गए हैं । हो सकता है कि भविष्य में हर वर्ष होने लगे ऐसा आयोजन।
कालावधि को कम करने के पीछे विद्वानों का तर्क ये है कि बारह वर्ष बहुत लम्बा समय होता है, ऐसे में लोक-जागरण हेतु किंचित् भिन्न (न्यून) गोचरस्थितियों में भी सन्त-समागम होना चाहिए। मुगलकाल के दुष्प्रभाव और आतंक को ध्यान में रखते हुए, तत्कालीन विद्वानों ने ऐसा निर्णय लिया था।
निर्णय स्वागत योग्य है। किन्तु प्रश्न ये है कि क्या सिर्फ सन्त-समागम से ही लोक-कल्याण हो जायेगा?
वर्तमान की विडम्बना है कि सन्त-असन्त की पहचान खोती जा रही है। सन्तत्व ओढ़े हुए बहुरूपिओं की बाढ़ है समाज में। सामान्य जनमानस दिग्भ्रमित है आडम्बरियों के मायाजाल में।
सर्वाधिक दुःखद है कि तीर्थस्थलों का स्वरूप बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। धर्मशालाएँ लुप्त होती जा रही हैं। विलासितापूर्ण होटलों की भरमार है। जहाँ लोग तीर्थाटन करने नहीं, पिकनिक मनाने आते हैं। छुट्टियाँ बिताने आते हैं।
कुम्भपर्व में सम्मिलित होकर, भीड़ का हिस्सा बन जाने मात्र से न लोक कल्याण होना है और न निज कल्याण ।
देश-काल-पात्र की त्रिवेणी में सद्भाव का समागम होने पर ही कुम्भपर्व की सार्थकता सिद्ध होगी, अन्यथा नक्र-घड़ियाल-मण्डूक तो नित्य गंगा-गोदावरी में ही वास कर रहे हैं।
सन्त कबीर की वाणी सुनने में तो कटु लगती है, किन्तु यदि गुने, समझे, पालन करे तो तत्क्षण कल्याण हो जाए—
नहाये धोए क्या भया, मन का मैल न जाए।मीन सदा जल में रहे, धोए बास न जाए।।
विदित हो कि अभी जनवरी २०२५ई. में तीर्थराज प्रयाग में महाकुम्भपर्व का मेला लगा हुआ है। इस पर कुछ संशय हो रहा है कि ये कुम्भयोग बना कैसे? अतः इसपर किंचित् पुनर्विचार करते हैं)
तीर्थराज प्रयाग में कुम्भपर्व घटित होने के सम्बन्ध में ये ऋषिवाक्य उपलब्ध हैं—
मकरे च दिवानाथे ह्यजगे च वृहस्पतौ । कुम्भयोगो भवेत्तत्र प्रयागे ह्यदि दुर्लभः।। (मकरराशि के सूर्य और (हि+अज+ग=अज) मेष राशिगत बृहस्पति की स्थिति में भी अति दुर्लभ कुम्भयोग प्रयाग में होता है।)
माघे मेष गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ। अमावस्या तदा योगः कुम्भाख्यस्तीर्थ नायके।। (माघमास में मेष राशि पर गुरु और मकर राशि के सूर्य-चन्द्र(अमावस्या)में हों तो तीर्थराज प्रयाग में कुम्भपर्व घटित होता है)
मेषराशिं गते जीवे मकरे चन्द्रभास्करौ । अमावस्या तदा योगः कुम्भाख्यतीर्थनाथके।। (देवगुरु बृहस्पति मेष राशि पर एवं चन्द्रमा-सूर्य मकर राशि पर स्थित हों तो तीर्थराज प्रयाग में कुम्भयोग घटित होता है)।
मकरे च दिवानाथे वृषराशिस्थे गुरौ । प्रयागे कुम्भयोगो वै माघमासे विभुक्षये।। (मकर राशि पर सूर्य एवं वृषराशि पर गुरु हों तो माघ अमावस्या (मौनी अमावस्या) को प्रयाग में कुम्भपर्व होता है।)
प्रयागराज में कुम्भस्नान तीन होते हैं। यहाँ प्रथम स्नान मकरसंक्रान्ति को, द्वितीय स्नान माघ अमावस्या (मौनी अमावस्या) को एवं तृतीय स्नान माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) को सम्पन्न होता है।
इस वर्ष २९ जनवरी २०२५ई. यानी माघ अमावस्या (मौनी अमावस्या) को ऐसा मुख्य पुण्यकाल घटित हो रहा है—सूर्य-चन्द्रमा मकरराशि पर और देवगुरु बृहस्पति वृषराशि पर संचरण कर रहे हैं। यही कारण है कि मकरसंक्रान्ति के प्रथम स्नान के साथ कुम्भस्नान का शुभारम्भ हो जायेगा। मुख्यकुम्भपर्व मध्य में पड़ेगा, जिसका स्नान माघ अमावस्या हो सम्पन्न होगा एवं सरस्वतीपूजा (वसंतपंचमी) को अन्तिम स्नान सम्पन्न होगा। अस्तु।
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