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फोटो फोबिया

फोटो फोबिया

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
संयोग से आज मुझे एक नयी जानकारी मिली घिनावनभाई के मार्फ़त—हाइड्रोफोबिया की बीमारी कुत्ते-सियार के काटने से होती है और फोटोफोबिया की बीमारी कैमरा देखकर ।
इलाके में चर्चा है कि हमारे भुलेटनभाई आजकल इसके भयंकर शिकार हो गए हैं। चुँकि सुनी-सुनायी बात कुछ पल्ले पड़ी नहीं, इसलिए तर्क-वितर्क और जिरह करना पड़ा, तब पता चला कि किसी दुष्ट चुहलबाज ने खेत के मेड़ की आड़ में सुबह-सुबह पेट हल्का करते वक्त उनका फोटो लेकर सोशलमीडिया पर शेयर कर दिया है। भुलेटनभाई बहुत खफा हैं, दुःखी और चिन्तित भी हैं। इस असामयिक दुर्घटना से त्रस्त भी हैं। किन्तु कुछ पता नहीं चल पा रहा है कि ये काम किया किसने। इतना धुआँधार शेयर हुआ कि प्रेषक का मूल स्रोत ही पता नहीं चल पा रहा है।
बहुत छान-बीन करने पर, गली-नुक्कड़-चौराहे के गप्पबाजी का सघन विश्लेषण करने पर पता चला कि लोग तंग आ चुके थे आए दिन के भुलेटनभाई की हरकतों से।
भुलेटनभाई के परिचित लोगों को इस बात का अनुभव जरुर हुआ होगा कि कहीं भी, किसी के व्यक्तिगत-पारिवारिक कार्यक्रम—शादी-विवाह, मुंडन, अन्नप्राशन, छठीहार, श्राद्धभोज ही नहीं, बल्कि अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक कार्यक्रमों में भी भुलेटनभाई आग्रहपूर्वक निमन्त्रण माँग कर उपस्थित होने वाले लोगों में हैं। बारबार उनका फोन परेशान न करे, इस कारण कुछ समझदार किस्म के लोग उन्हें सबसे पहले निमन्त्रित कर देते हैं। किन्तु जानकारों का ये भी मानना है कि उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता या जनसहयोगी की श्रेणी में रखना महामूर्खता ही है। शत्रु तो शत्रु होता ही है, वे मित्र बनाने की काबिलियत भी नहीं रखते।
सौ-पचास रुपये का बन्द लिफाफा थमाकर, खींसे निपोरते हुए बगल वाले को ठेलिआ करके, धकिया करके फोटोशूट हो जाए और चिकनी-चुपड़ी बातों के साथ-साथ सुस्वादु यथेष्ट भोजन भी मिल जाय फिर कहना ही क्या ! इतना ही नहीं,चलते वक्त मिठाई का एक्स्ट्रा पैकेट यह कह कर भुलेटनभाई माँग लेते हैं कि सख्त बीमार होने के कारण पत्नी साथ नहीं आ सकी।
प्रायः लोग उनकी डींगबाजी से उबे हुए ही होते हैं, किन्तु अपना भेज़ा और इज्जत बचाने के लिहाज से, कोई उनसे सीधे मुँह लगना उचित नहीं समझता और यही उनकी समझ की चूक है—वे समझ लेते हैं कि लोग मेरा सम्मान करते हैं या डरते हैं।
भुलेटनभाई एक प्राइवेटफर्म में मुनीबी करते हैं। लेखक, कवि, वक्ता, अधिवक्ता, प्रवक्ता, आचार्य कुछ भी होने की काबिलियत नहीं हैं। धैर्यवान, विचारवान, गुणवान, सहिष्णु स्रोता की श्रेणी में भी रखा नहीं जा सकता उन्हें। किन्तु इन सबके बावजूद खासकर मंचीय कार्यक्रमों में तो बिना निमन्त्रण के भी हाजिर हो ही जाते हैं।
दरअसल वहाँ तो लिफाफे की भी दरकार नहीं होती और बाकी सारे लाभ मिलने ही मिलने हैं। सुस्वादु भोजन और चवनियाँ मुस्कान वाला फोटोशूट—ये उनकी कमजोरी है।
लाइट-कैमरा-ऐक्शन वाले मंचीय गूंजों से प्रभावित होकर इधर कुछ दिनों से कविताओं और तुकबन्दियों का कॉपी-पेस्ट-यूज भी सीख लिए हैं। मोबाइल में सारा संग्रह रखे रहते हैं और मौका देखकर लोगों को ‘स्वरचित’ कहकर सुनाते भी हैं।
कानाफूसी खबरियों के बीच ये भी चर्चा है कि अपने गुरुजी की एक डायरी इन्हें हाथ लग गई है, जब वे उनके स्वास्थ्य-सहानुभूति-मिलन में उनके घर गए थे एक किलो अंगूर लेकर। गुरुजी ने अपनी अन्तिम इच्छा जाहिर की थी प्रिय भुलेटन शिष्य से कि उनकी अन्य सभी रचनाएं तो प्रकाशित हो गई, किन्तु एक अतिप्रिय रचना अप्रकाशित रह गई है...।
मेमने के मोह ने जड़भरत को नये शरीर में आने को विवश किया था—कुछ ऐसा ही हाल गुरुजी का भी न हो जाए—गुरुजी को इस अपूरित इच्छा के कारण पुनर्जन्म न लेना पड़ जाए...इस सुविचार या कहें कुविचार ने प्रेरित किया भुलेटनभाई को।
“ मैं इसे अवश्य प्रकाशित कराऊँगा मान्यवर ! ”— के आश्वासन पूर्वक गुरुजी की डायरी सहित दिल्ली यात्रा के लिए कुछ जेब-खर्च भी हस्तगत कर लिए भुलेटनभाई और निश्चिन्त होकर इन्तजार करने लगे गुरुजी की अन्तिम यात्रा की।
कोई तीन महीने गुजर गए। कभी अपनी कार्यव्यस्तता तो कभी पत्नी की स्वास्थ्य-बाधा कह-कहकर टहलाते रहे गुरुजी को और सीधे-सादे निर्मल विचार वाले वेचारे गुरुजी बालक आरुणी तुल्य समर्पित शिष्य पर भरोसा किए बैठे रहे।
मजे की बात ये है कि चौथे महीने में, इधर गांव में गुरुजी का श्राद्धीय पितृमेलन भी सम्पन्न नहीं हुआ और उधर राज्य-राजधानी में भुलेटनभाई के अभिनव काव्यसंग्रह का लोकार्पण-समारोह सम्पन्न हो गया।
भुलेटनभाई को करीब से जानने वाले लोग मन ही मन मुस्कुराये और नहीं जानने वाले लोग जोरदार तालियाँ बजाये।
दरअसल आजकल तालियाँ भी तो बारबार निवेदन करके, भीख माँगकर आग्रहपूर्वक बजवानी पड़ती हैं न ! स्वेच्छा से या उत्साह से बजाते कितने लोग हैं !
मेरी इन बातों पर यकीन न हो तो किसी भी कविसम्मेलन का स्टेज शो नहीं तो वीडियो ही देख लें—कवि महोदय कविता कम सुनाते हैं और जोरदार तालियों की भीख ज्यादा माँगते हैं। उधर भाड़े के बाहबाहक एक्सट्रा माइक थामें बाहबाही का घोष करते नहीं अघाते।
अरे भाई ! तुम्हारे शब्दों और भावों में दम-खम होगा तो तालियाँ भावोद्रेक में बजेंगी। सम्मोहित होकर, विवश होकर लोग तालियाँ बजायेंगे। भीख माँगने की नौबत ही नहीं आयेगी,जरुरत ही नहीं पड़ेगी।
खैर, मंच डगडगाने वाले कवियों को सबक मिले न मिले, किन्तु हमारे भुलेटनभाई को तो सबक मिल गया इस बार। ठेल-धकियाकर फोटो खिंचवाने वाले भुलेटनभाई अब कैमरा देखते ही खुले पिछवाड़े की चिन्ता छोड़कर भागने लगते हैं। नववर्ष के अवसर पर किसी से निमन्त्रण भी नहीं माँगा है और न बिन बुलाए गए ही हैं कहीं। शायद सच में उन्हें फोटोफोबिया की जानलेवा बीमारी लग गई है। भगवान उन्हें सद्बुद्धि दें। उनका कल्याण हो—हम तो यही कामना करेंगे। मन हो तो आप भी करें।
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