मोची हूँ मैं कर्म से, जाति से मैं इन्सान हूँ,
जोड़ता हूँ टूटे टांके, समाज की मैं शान हूँ।हैं गर्व मुझको बहुत, कार्यकुशलता पर मेरी,
गरीबी में भले ही, राष्ट्र का मैं स्वाभिमान हूँ।
दौड़ता है पुर्वजों का, लहू शिराओं में मेरी,
सन्तानें पलती रही, कुछ अभावों में मेरी।
कर्म मेरा क्षत्रिय था, इतिहास में देखो जरा,
हालात कुछ ऐसे बने, अछूतों सी दशा मेरी।
मेहरबानी अपनों की कुछ, खेल सियासतदानों के,
बाँटकर जाति धर्म में, टूकडे कर दिये सन्तानों के।
सनातन में थे सब बराबर, कर्म का आधार था कुछ,
जब बना संविधान मुल्की, तार तार हुये अरमानों के।
अ कीर्ति वर्द्धन
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