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चुनाव, लोकलुभावन घोषणाएं और देश का कानून।

चुनाव, लोकलुभावन घोषणाएं और देश का कानून।

जय प्रकाश कुवंर
दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ एक बार फिर देश के एक राज्य में चुनावी विगुल बज गया है। यह चुनाव 5 फरवरी 2025 को होने जा रहा है। चुनावी घोषणा के साथ ही वहाँ राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त रेवड़ी बांटना शूरू हो गया है।
देश में जब जब भी किसी चुनाव की घोषणा होता है, चाहे वह लोकसभा चुनाव हो अथवा किसी राज्य विधानसभा का चुनाव हो, विभिन्न राजनीतिक पार्टियां सक्रिय हो उठती हैं, और चुनाव जीतने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाये जाने शुरू हो जाते हैं। इस मामले में सरकार में बैठी पार्टियों और विरोधी पार्टियों में जनता को बरगलाने के लिए तरह तरह की लोकलुभावन घोषणाओं का होड़ सा लग जाता है।
चुनाव आयोग चुनाव की घोषणा की तिथि से चुनाव आचार संहिता भी लागू कर देता है जो मतदान के परिणाम आने के समय तक जारी रहता है। चुनाव आचार संहिता के अन्तर्गत राजनीतिक दलों के लिए अनेक बातें शामिल हैं :-
1. सरकार के द्वारा लोकलुभावन घोषणाएं नहीं करना।
2. चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग न करना।
3. राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के द्वारा जाति, धर्म व क्षेत्र से संबंधित मुद्दे न उठाना।
4. चुनाव के दौरान धन बल और बाहु बल का प्रयोग न करना।
5. चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद किसी भी व्यक्ति को धन का लोभ न देना।
6. आचार संहिता लागू हो जाने के बाद किसी भी योजना को लागू नहीं किया जा सकता।
यह सरकार, राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों तथा जनता को दिये गए निर्देश होते हैं, जिसका पालन चुनाव के दरमियान किया जाना जरूरी होता है। आचार संहिता का उलंघन करने पर उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है ।
किसी भी चुनाव में वोटर जनता ही सर्वे सर्वा है और वही अंतिम निर्णायक भी है । यही कारण है कि चुनाव से पहले सभी राजनीतिक पार्टियां अपना घोषणा पत्र लेकर आती हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि उनका एजेण्डा क्या है। ये सब पार्टियां अपने घोषणा पत्र में यह बताती हैं कि चुन कर आने और सरकार बनाने पर वो जनता के हित में क्या क्या काम करेंगी। वो कैसे सरकार चलाएंगी और जनता को क्या क्या फायदा होगा। लेकिन केवल लोगों को लुभाने के लिए पार्टियां घोषणा पत्र में कोई भी गलत या भ्रामक वादा नही कर सकती हैं। इसे लेकर चुनाव आयोग की कुछ दिशा निर्देश है, जिसका पालन करना अनिवार्य होता है। सुप्रीम कोर्ट भी इस मुद्दे पर निर्देश दे चुका है। घोषणा पत्र में पारदर्शिता, समान अवसर और वादों की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए सभी दलों से यह अपेक्षा की जाती है कि घोषणा पत्र में किये गए वादे स्पष्ट हों और इसे पुरा करने के लिए वित्तीय संसाधन कैसे जुटाए जाएंगे, इसकी भी जानकारी हो। मतदाताओं का भरोसा उन्हीं वादों पर हासिल करना चाहिए, जिन्हें पुरा किया जाना संभव हो। पर स्पष्ट रूप से आज कल ऐसा कुछ भी नहीं देखा जा रहा है।
चुनाव आयोग तथा सुप्रीम कोर्ट के दिए गए निर्देश के बावजूद राजनीतिक दल लोकलुभावन घोषणाएं करने में एवं रेवड़ी कल्चर को बढ़ावा देने में चुक नहीं रहे हैं। किसी राज्य में चुनाव घोषणा पत्र में किसानों का कर्ज माफ करने की बात कही जा रही है। सौ यूनिट मुफ्त बिजली तथा आधे दर पर दो सौ यूनिट बिजली देने की बात कही जा रही है। कहीं लड़कियों को मुफ्त स्कूटी देने का वादा किया जा रहा है। कहीं लड़कियों को उनके शादी के समय एक लाख रुपये और दश ग्राम सोना देने का वायदा तथा मुफ्त इंटरनेट सेवा देने का वायदा किया जा रहा है। यह ठीक उसी तरह से है, जैसे विभिन्न सेवा प्रदाता फर्म अपने को चयनित होने के लिए अलग अलग अनेक लुभावने प्रस्ताव देते हैं, उसी प्रकार राजनीतिक दल भी मतदाताओं को वोट के बदले अनेक आकर्षक वस्तुएँ देने की घोषणा कर रहे हैं।
किसी राज्य में मुफ्त अनाज, तो कहीं दो रुपये किलो चावल तो कहीं महिलाओं को 1500 रूपये महीने आदि देने के वायदे किए जा रहे हैं। कहीं हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देने का वायदा किया जा रहा है। अब तो किसी किसी राज्य में टी भी, मोबाईल, लैपटॉप आदि लोन माफी की बात हो रही है। यह सब देखा देखी हो रहा है। जब कोई एक राज्य अथवा कोई एक राजनीतिक दल मुफ्त रेवड़ियाँ बांटना शूरू करता है, तो दूसरे भी पिछे नही रहते और वे भी कुछ ज्यादा ही बढ़चढ़ कर रेवड़ियाँ बांटने लगते हैं। यह अब एक चुनावी परंपरा बन गयी है, जो समय के साथ बढ़ती जा रही है।
अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसी लोकलुभावन मुफ्त घोषणाएं सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा आखिर क्यों की जाती हैं। शायद ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमारी अर्थ नीति अधिकांश व्यक्तियों को सम्मान पूर्वक जीविका नहीं उपलब्ध करा पाती हैं। एक बात और समझने की है कि जो लोकलुभावन घोषणाएं नेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा जिस जनता के लिए की जाती हैं, वह पैसा राजनीतिक दलों द्वारा स्वयं अर्जित नहीं है, बल्कि वह देश के करदाताओं का पैसा होता है, जिसका परोक्ष भार कर के रूप में एक बार फिर से उन्हीं के उपर आता है।
अतः ऐसी परिस्थिति में सर्वोच्च न्यायालय को इसका स्वत: संज्ञान लेना चाहिए तथा राजनीतिक दलों को लोकतंत्र में उनकी जबाबदेही और जिम्मेदारी सुनिश्चित करते हुए उनके झूठे वायदों पर रोक लगाने संबंधी समुचित दिशा निर्देश जारी करना चाहिए। स्वत: संज्ञान जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय आवश्यक समझे तो इस मामले में बिना किसी व्यक्ति के आवेदन किए भी आवश्यक कार्यवाही करने के लिए स्वयं ही संज्ञान ले सकता है। ऐसा माना जाता है कि लोक तंत्र में मुख्यतः तीन स्तंभ होते हैं। ये हैं, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। अगर इन सभी में छोटी छोटी भी गड़बड़ियां आ जाये तो उसे खराब लोकतंत्र कहते हैं। और अगर सभी में बड़ी बड़ी गड़बड़ी आना शूरू हो जाये तो एक समय के बाद वहाँ लोकतंत्र समाप्त भी हो सकता है।
इन तीनों में से न्यायपालिका एक ऐसा स्तंभ है जो संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए होता है। वह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए होता है। सरकार अगर कुछ गलत करती है तो उसे भी चेताने के लिए भी होता है। करदाताओं के द्वारा दिए गए कर को मुफ्त में वोट के लिए जनता में न बांटकर उसे देश के विकास के लिए लगाया जा सकता है। ऐसे हालत में न्यायपालिका अर्थात सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका अहम मानी जा रही है। मेरा मानना है कि अगर सर्वोच्च न्यायालय स्वत: संज्ञान लेकर राजनीतिक दलों एवं राजनेताओं द्वारा लोकलुभावन घोषणाओं तथा रेवड़ी कल्चर जो इन लोगों द्वारा चलाया जा रहा है , पर अंकुश लगाने की व्यवस्था करता है, तो भारतीय लोकतंत्र स्वस्थ और जीवित रहेगा तथा भारतीय अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ बनी रहेगी और देश विकसित होगा।
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