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कड़वाहट का बीज न डालो

कड़वाहट का बीज न डालो

सुरेन्द्र कुमार रंजन
कोलाहल-सा माहौल है यहाँ,
हर तरफ भीड़ दिखती है।
दौलत के पीछे दौड़ है यहाँ,
सारी दुनियाँ अधीर दिखती है।

खुशी का मतलब नहीं जानते,
फैला हुआ सिर्फ स्वार्थ है यहाँ ।
आज तो इंसान भी बस,
पशुओं का यथार्थ है यहाँ ।

जान की तो कीमत नहीं,
कागज के टुकड़े अनमोल बने।
अहसासों की जगह नहीं ,
मुहब्बत पैसों से तोल चले।

इस दुनिया में जीने से,
क्या बेहतर मौत नहीं।
जिंदगी हो चली यहां,
बद से भी कहीं बद्तर है।

ऐसे में बस बचपन है जो,
निस्वार्थ प्रेम का साथी है,
एक मुस्कुराहट के सामने जहाँ ,
हर रिश्ते की कीमत आधी है।

इन्हीं नन्हें मुन्नों में तो बस,
जीवन हर पल झलकता है।
इनकी उल्टी-सीधी हरकतों से,
हम सबों का मन बहलता है।

व्यभिचार के सन्नाटे से कोलाहल है भला,
जिसमें उन्मुक्त बचपन शामिल हो,
इन नटखट चंचल निर्बोधों के रहते,
क्यों जीवन का पल धूमिल हो।

तपते हुए रेगिस्तान में ये,
नदी की निर्मल धारा है।
इस कड़‌वाहट भरी दुनियाँ में ये,
मीठे जल का फव्वारा हैं।

जीवन अगर हर पल जीना है,
खुद में एक बचपन को पालो।
धरती को धरती रहने दो, 
कड़‌वाहट का बीज न डालो।

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