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बिहार के सरोद वादक तथा संगीत इतिहासकार थे प्रो. सी. एल. दास

बिहार के सरोद वादक तथा संगीत इतिहासकार थे प्रो. सी. एल. दास

(91वीं जयंती पर विशेष)
दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
सरोद वादक तथा संगीत इतिहासकार प्रो. सी. एल. दास की 91वीं जयंती 4 जनवरी 2025 को है। इस संदर्भ में कहना है कि "पिता ने जैसे भविष्य की कल्पना की थी, उसके उलट प्रो. दास ने चुना था शास्त्रीय संगीत और आम लोगों के बीच की दूरी को पाटने की जद्दोजहद' कहते हैं संगीत के लिए व्यक्ति बना हुआ आता है। उसे मुखरित करने के लिए बस थोड़ी साधना और थोड़े तराश की जरूरत होती है। दरअसल जो राग रस होता है किसी के भीतर, वही तय करता है उसके जीवन धारा की दिशा को। कुछ ऐसा ही हुआ था सरोद साधक तथा संगीत इतिहासकार, प्रो. सी. एल. दास के साथ।

प्रो. दास के भविष्य की एक अलग ही छवि बना रखी थी उनके परिवार ने, जहाँ था सैल्यूट मारता सरकारी शोफर और उनके गाँव की सड़क पर अंगरक्षकों से भरी सरपट दौड़ती गाड़ी। लेकिन नियति कुछ और ही लिख लाई थी इनके लिए। उन्होंने जो संसार रचा अपने लिए, उसमे वैसा कुछ नहीं था जैसी कल्पना की थी उनके परिवार ने। यहाँ थी सरोद, स्वर और लय की साधना, शास्त्रीय संगीत और आम लोगों के बीच की दूरी को पाटने की जद्दोजहद और उसके विस्तार के लिए पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में रागों- स्वरों को शब्दबद्ध करने की जिम्मेदारी। सरकारी रोब- दाब जैसा कुछ नहीं था यहाँ। था तो बस मैहर और मदीना भवन के साथ अबूझा सा प्रेम। गर्मी की छुट्टियों में सरोद लेकर बॉम्बे जनता ट्रेन में पटना से मैहर तक का सफर, अल्लाउद्दीन बाबा के साथ भोजन के बाद मैहर म्युजिक कौलेज जाना और वहां बाबा को विद्यार्थियों को राग और गतें सिखाते देखना। यही थी उनकी दुनिया की धुरी।

एक अनजानी सी रिश्तेदारी बन गई थी उनकी देश भर के कलाकारों, खास तौर पर उस्ताद अली अकबर खाँ, उस्ताद बहादुर खान, पद्य भूषण उस्ताद गुलाम मुस्तफा और पंडित रामचतुर मल्लिक से और अपने अनगिनत परिचित- अपरिचित कला पाठकों के साथ तो साझेदारी थी ही राग-संगीत की।

04 जनवरी, 1934 में नेपाल तराई के एक जमींदार परिवार में जन्मे चँद्रकांत के लिए उनके पिता ने हर आम पिता की तरह कई सपने देखे थे। बड़ी इच्छा थी कि बेटा पढाई कर कोई ऊँचा अधिकारी बने। सरकारी गाड़ी से गाँव की कच्ची सड़क पर चले तो उसकी धूल के साथ- साथ उसके ओहदे की धमक भी गाँव भर मे फैल जाए। बालक चंद्रकांत जब महज छः साल के थे, उसी उम्र में माँ की गोद से उतार बच्चे को अच्छी शिक्षा के लिए राजनगर (मधुबनी) भेज दिया था। बच्चे के विछोह में माँ रोती रह गई थी। "कहाँ दूर मोगलान में भेज दिया मेरे बच्चे को," उन्होंने खीजकर कहा था। उन दिनों तराई के गाँव में भारत को मोगलान ही कहते थे लोग। लेकिन जमींदार साहब टस से मस नहीं हुए थे। दालान पर बैठे पटवारी कालिदास ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा था, "बच्चे को और मिर्चे को जितना आग में झोंकिए, उसकी झाँस उतनी ही बढती है"। फिर क्या था जमींदार पिता और आश्वस्त हो गए थे। सोचते, "बच्चा मेधावी है, जरूर अच्छा करेगा। चँद्रकांत एक बार बड़ा अधिकारी बन जाए, तो खेती की सारी चिंताएं दूर हो जाएंगी"। लेकिन यहाँ तो ग्रह- नक्षत्र के कुछ और ही खेल चल रहे थे। चँद्रकांत के नंबर तो अच्छे आ रहे थे। लेकिन पढाई के साथ - साथ राग -संगीत के प्रति आकर्षण बढने लगा था। राजनगर में दुर्गा पूजा में जब बाकी सहपाठी मेला घूम रहे होते और मछली और मिठाइयों के स्टौल के चक्कर काट रहे होते, चँद्रकांत का समय मंदिर में हो रहे पूजा के समय कलाकारों द्वारा गाए- बजाए राग और बंदिश सुनने में बीतता।

एक बात जो उन्हे खटक रही थी वो ये कि शास्त्रीय संगीत और संगीतकार दोनो ही आम लोगों की पहुँच से बाहर थे। शायद उसी क्षण उन्होने शास्त्रीय राग संगीत को आम लोगों के बीच लाने की ठानी होगी। कॉलेज की पढाई के लिए वो जब पटना आए, तो यहाँ भी देखा कि कलाकार शहर के रईसों की बैठकियों तक ही सीमित थे। लेकिन जैसे ही पटना के एक कौलेज में नौकरी लगी, उन्होने संगीत और संगीतकारों को आम लोगों के बीच लाने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया था। अपने कुछ संगीत प्रेमी मित्रों के साथ मिलकर शहर के सभागार में जन समारोह आरंभ किया। हालाँकि दशहरा में यहाँ कई दिनो का संगीत समारोह होता था। लेकिन बाकी दिन सब कुछ शांत और स्थिर सा होता।

प्रो दास ने इस एकरसता को तोडने की पहल की। उन्होंने अपने जन समारोह में पंडित रवि शंकर और उस्ताद अमीर खाँ सरीखे कलाकारों को शामिल किया। इसके लिए जिस फंड की जरूरत थी, उसे शहर के कुछ संगीत प्रेमी डॉक्टरों, व्यवसाइयों और रईसों ने चंदा देकर पूरा किया। भारतीय नृत्य कला मंदिर की बुकिंग हुई और प्रचार के लिए शहर में पोस्टर लगाए गए। उन दिनो अखबारों में विज्ञापन देने का चलन नहीं था।
कार्यक्रम में हॉल की सीट से ज्यादा लोग आ गए। लेकिन कलाकार को देने के लिए पैसे नहीं इकट्ठा हो पाया। बाद में अपने अकाउंट से ही पैसे निकालकर पंडित रविशंकर को मनी ऑर्डर कर दिया था। लेकिन इस आयोजन में पटना ने पंडित रविशंकर को उन दिनो लाईव सुना जब वो सितार वादन के चरम पर थे। बल्कि युवा पीढ़ी तक राग संगीत पहुँचाने के लिए प्रो दास ने अपने कौलेज में संगीत समारोह आयोजित किया। जब पंडित रामचतुर मल्लिक को पद्मश्री से अलंकृत किया गया था, दास साहब ने कौलेज में मल्लिक जी के सम्मान में एक संगीत समरोह किया। हारमोनियम पर उनके साथ बैठे धुपद गायक, पंडित सियाराम तिवारी और श्रोताओं में थे कौलेज के प्रिंसिपल, शिक्षक, विद्यार्थी और पटना के कई कलाकार। तीन घंटे तक मल्लिक जी कई- कई रागों में ध्रुपद- धमार और ठुमरी सुनाते रहे थे।

कार्यक्रम तो बहुत सफल रहा लेकिन एक बार फिर प्रो दास साहब को अपने अकाउंट से ही पैसे निकाल कर कलाकारों को देने पड़े थे। कॉलेज प्रशासन इस आयोजन के लिए बजट ही नही क्लियर कर पाया। इस बीच प्रो दास साहब आकाशवाणी के अखिल भारतीय संगीत समारोह की समीक्षा हाथरस, उत्तर प्रदेश से प्रकाशित पत्रिका, 'संगीत' में लिखने लगे थे।
इस बहाने देश भर के कलाकार उनसे जुडने लगे थे। रोज उनके पते पर कई चिट्ठियां आतीं। कई स्थानीय कलाकार घर पर आ जाते। संगीत अभ्यास होता और इस पर चर्चाएं भी होती।

दिन का समय कॉलेज में शेक्सपियर के सौनेट्स पढाते या मैकबेथ और हैमलेट का मनोविश्लेषण करते हुए बीतता और कॉलेज के बाद राग- संगीत और संगीतकारों की दुनिया धमक जाती।
यहाँ राग थे, प्रतिष्ठा थी और सम्मान था। लेकिन ऐसी दुनिया की कल्पना तो नहीं की थी पिता ने। कितने लाव लश्कर के साथ वो पटना आए थे जब
चँद्रकांत ने पटना कौलेज के अंग्रेजी विभाग में दाखिला लिया था और फिर पटना मार्केट जाकर बेटे के लिए समर सूट सिलाया था। लेकिन कुछ ही दिनो में उन्हे पता लगा था कि बेटा अंग्रेजी साहित्य की किताबें पलटने के साथ-साथ साथ पटना के अशोक राजपथ पर लगे बुक स्टॉल पर आकाशवाणी के कार्यक्रमों की विवरणी आधारित पत्रिका खंगाल रहा है और मैहर के सरोद वादक, उस्ताद अल्लाउद्दीन खाँ को सुनने देर शाम हॉस्टल से बाहर जाकर पान की दुकान पर रखे रेडियो के बजने का इंतजार कर रहा होता है। लेकिन उस समय तक बेटे का संगीत प्रेम उनकी चिंता का विषय नहीं बना था। वे स्वयं भी ग्रामोफोन पर सितार-सुरबहार के रिकार्ड सुना करते थे। लेकिन बेटे की नौकरी लगी और गर्मी की छुट्टियों वो गाँव न आकर, सरोद सहित मैहर चला गया, फिर तो उनकी नींद ही उड गई थी। हड़बड़ाकर पटना आए और बहू से कहा कि वो पति को समझाए कि गाँव की तरफ ध्यान दे। खानदान का बड़ा बेटा है। उसे ही देखना होगा। इतना खेत-खलिहान, बखारी और बैल- घोड़े। बहू ने जवाब में बस मुसकुरा दिया था।

अगली छुट्टी में कामटी (सोलापुर), महाराष्ट्र में हो रहे एन सी सी कैंप चल दिए और वह भी सरोद लेकर। वहाँ कैंप के व्यस्त गतिविधियों के बीच सरोद अभ्यास तो नहीं हो पाया, अलबत्ता पटना वापसी के क्रम में पुणे स्टेशन पर रुकने का मौका मिला तो पता ढूंढकर पंडित भीमसेन जोशी से मिलने उनके घर पहुँच गए। इसके बाद तो पिता का सब्र टूटने लगा था। अगले साल गर्मी की छुट्टियाँ शुरू होने के बहुत पहले ही उन्होंने चिटठी लिखकर गाँव आने की ताकीद कर दी थी। वो गाँव गए तो, लेकिन सरोद साथ लेकर। पटना में महेंद्रू घाट पर स्टीमर पर चढ़कर गंगा नदी पार किया और उस पार पहलेजा घाट पर उतरे तो हाथ मे सरोद थाम रेतभरी लंबी दूरी तय की और तब ट्रेन में बैठे थे। दरभंगा आया तो फिर दूसरी ट्रेन में सवार होकर निर्मली स्टेशन पहुंचे और फिर वहां से बस में बैठे तो तराई बार्डर पर स्थानीय बस से अपने गाँव के पास के शहर पहुंचे थे। पिता ने खबास और बहलमान सहित बैलगाड़ी भेज दी थी। सो सरोद को हाथ में थाम गाँव तक बैलगाड़ी की सवारी की। बेटे को देखने को उत्सुक थे पिता। माँ की तो जैसे आँखे पथरा गईं थीं। लेकिन बैलगाड़ी नजदीक आया तो बेटे को सरोद को अपने बच्चे की तरह संभालते देख, वे सहम गए थे। ऐसा तो नहीं सोचा था उन्होंने। संगीत से लगाव तक तो ठीक था, लेकिन यहाँ तो कुछ और ही दिख रहा था।

अगली सुबह चँद्रकांत जब दालान पर सरोद रियाज करने बैठे तो कई महिला-पुरुष और बच्चे 'बाजा' को देखने इकट्ठे हो गए थे। पिता विस्मित थे। क्या कहें कुछ समझ नहीं आ रहा था। संध्याकाल गाँव के कई लोग मिलने आ गए, चँद्रकांत ने प्रसंगवश अल्लाउद्दीन बाबा का नाम लिया, तो सभी चौंक उठे इस संबोधन पर। एक अजनबी मुसलमान को बाबा का ओहदा कैसे दे दिया? और पिता ने महसूस किया कि अब वापसी संभव नही है।
चँद्रकांत ने राग संगीत को सर्व सुगम बनाने की ओर काम किया। अपने हर कार्यक्रम में सरोद वादन से पहले हिन्दुस्तानी रागों की रहस्यमयी दुनिया को परत दर परत खोलने की कोशिश होती उनकी। पहले एक राग पर लेक्चर देते, तब गतें बजाते।

पटना में जन समारोहों की शुरुआत की जिनमे प्रेमियो को संगीत सुनने की सुविधा हो। यह वो समय था जब ग्रामोफोन कुछ सम्पन्न परिवारों मे ही होता था और रेडियो भी इने- गिने घरों में ही होते थे।

जन समारोहों के दौर में कई संगीत संस्थाएं बनाई और कई संगीत संस्थाओं ने उन्हे जोड़ा। बल्कि राज्य के दूसरे जिलों में भी लोग उनसे जुडने लगे थे जन समारोहों के लिए। इस क्रम में विक्रम (पटना), आरा, छपरा, गया, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, मुरलीगंज (सहरसा), मधुबनी, दरभंगा इत्यादि जगहों पर खूब संगीत समारोह हुए। पटना ने देश भर के कलाकारों को सुना और समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में प्रो दास की समीक्षा के बहाने उन्हे पढा भी बहुत।
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