दुखड़ा अधूरा रह गया
ऋषि रंजन पाठक
अभी तो हमने दुखड़ा सुनाना शुरू किया था,
दिल का बोझ थोड़ा हल्का करना चाहा था।
पर उन्हें शायद सुनना गवारा न था,
सुनते-सुनते उन्होंने फोन काट दिया।
अभी तो हमने बात शुरू ही की थी,
जख्मों की सिलवटें बस खोली थीं।
शब्दों में दर्द बहाना चाहा,
पर उन्होंने सुना और फोन काट दिया।
शायद हमारी तकलीफ भारी थी,
या उनकी दुनिया में कुछ और ही कहानी थी।
क्या इतना कठिन था कुछ पल ठहरना,
दर्द के इस सागर में बस थोड़ा उतरना?
हमने सोचा, शायद वक्त कम होगा,
या उनकी दुनिया में कुछ गम होगा।
पर मन ने कहा, यह तो बेखुदी है,
जहां दर्द समझने की भी कमी है।
हमारे शब्द थे, उम्मीद का सहारा,
पर उन्होंने कर लिया इससे किनारा।
क्या इतना कठिन था बस सुन लेना,
या दिल से हमारे दर्द को समझ लेना?
अब यह दिल फिर चुप सा है,
अपने ग़म को खुद सहता है।
शायद हर किसी के पास यह हुनर नहीं,
कि किसी के दर्द को महसूस करे सही।
फोन पर यह संवाद अधूरा रह गया,
दिल की बात, जो कह न सका।
कुछ शब्द थे जो रुके थे अधर में,
कहीं चुप हो गए थे मन के भंवर में।
अब तय किया,दर्द के साथी खुद बनेंगे,
हर चुभन को अपनी ताकत समझेंगे।
कभी मिलेगा कोई, जो समझ सकेगा,
अभी तो हमने दुखड़ा सुनाना शुरू किया था,
दिल का बोझ थोड़ा हल्का करना चाहा था।
पर उन्हें शायद सुनना गवारा न था,
सुनते-सुनते उन्होंने फोन काट दिया।
अभी तो हमने बात शुरू ही की थी,
जख्मों की सिलवटें बस खोली थीं।
शब्दों में दर्द बहाना चाहा,
पर उन्होंने सुना और फोन काट दिया।
शायद हमारी तकलीफ भारी थी,
या उनकी दुनिया में कुछ और ही कहानी थी।
क्या इतना कठिन था कुछ पल ठहरना,
दर्द के इस सागर में बस थोड़ा उतरना?
हमने सोचा, शायद वक्त कम होगा,
या उनकी दुनिया में कुछ गम होगा।
पर मन ने कहा, यह तो बेखुदी है,
जहां दर्द समझने की भी कमी है।
हमारे शब्द थे, उम्मीद का सहारा,
पर उन्होंने कर लिया इससे किनारा।
क्या इतना कठिन था बस सुन लेना,
या दिल से हमारे दर्द को समझ लेना?
अब यह दिल फिर चुप सा है,
अपने ग़म को खुद सहता है।
शायद हर किसी के पास यह हुनर नहीं,
कि किसी के दर्द को महसूस करे सही।
फोन पर यह संवाद अधूरा रह गया,
दिल की बात, जो कह न सका।
कुछ शब्द थे जो रुके थे अधर में,
कहीं चुप हो गए थे मन के भंवर में।
अब तय किया,दर्द के साथी खुद बनेंगे,
हर चुभन को अपनी ताकत समझेंगे।
कभी मिलेगा कोई, जो समझ सकेगा,
जो दर्द के हर रंग को सह सकेगा।
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