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प्रयागराज "महाकुंभ" की "ब्रह्म" शाश्वतता

प्रयागराज "महाकुंभ" की "ब्रह्म" शाश्वतता

लेखक: अवधेश झा
भारत में अर्ध कुंभ, पूर्ण कुंभ और महाकुंभ का आयोजन प्रमुख तीर्थ और धर्म स्थल पर सनातन से होता आ रहा है। अर्ध कुंभ छह साल में, पूर्ण कुंभ बारह साल में तथा महाकुंभ बारह पूर्ण कुंभ मेलों के बाद, अर्थात हर 144 साल वर्षों में एक बार प्रयागराज में आयोजित होता है।
यह महाकुंभ का संयोग तब बनता है, जब वृहस्पति और सूर्य कुंभ राशि में होते हैं और इसके साथ चंद्रमा भी उसी राशि में अवस्थित होते हैं। यह ब्रह्मांड के शुभ मंगल आचरण का उत्कृष्ट समय होता है, जिसमें अशुभ वृत्तियों का नाश होता है तथा शुभ वृतियों का उदय होता है और यही शुभ वृतियां आत्मवृति के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। इसलिए, यह धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ माना गया है। ब्रह्मांड के विभिन्न शुभ आयोजनों में एक महाकुंभ का आयोजन विशेष धार्मिक और आध्यात्मिक अनुष्ठान है। जोकि लौकिक या व्यवहार जगत को उत्तम और सफल बनाने के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है तथा आत्मा के दृष्टिकोण से भी ब्रह्म का ब्रह्म से दर्शन अर्थात स्वयं के कुंभ में स्वरूप का दर्शन है। यह कुंभ - स्नान और कल्पवास, स्वयं में स्थित तथा 'स्वयं प्रकाश' ब्रह्म में लीन होना ही "कुंभ - वास" और "कुंभ - स्नान" है। कुंभ का शाब्दिक अर्थ ही है "घड़ा" अर्थात हृदयाकाश, जो सम्पूर्ण चराचर में स्थित है। जिस घड़ा में "ब्रह्म" का निवास है, यह वही घट - आकाश है। सम्पूर्ण जगत में जहां भी कुंभ का आयोजन होता है; वह तीर्थराज प्रयाग में "ब्रह्म" स्वरूप में प्रकाशित होता है और यही ब्रह्म के "आत्मा" का निवास है।
महाकुंभ पर जब मैंने जस्टिस राजेंद्र प्रसाद, पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना से बात की तो उन्होंने कहा, "सांसारिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यह महाकुंभ अत्यधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" ब्रह्म तो सम्पूर्ण ब्रह्मांड में विद्यमान है और उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपस्थिति हमारे भीतर की "कुंभ" में है, जिसमें हम नित्य स्नान कर उनका चिंतन मनन, कीर्तन, कल्पवास कर अपने ब्रह्म स्वरूप का दर्शन कर सकते हैं। हम सभी जीवन में उत्तम स्थिति प्राप्त करना चाहते हैं, और आत्म स्थिति से उत्तम स्थिति क्या हो सकती है? अपने ब्रह्म स्वरूप को जानना और जगत से मोह भंग होना तथा अपने स्वरूप की स्मृति होना ही इस महाकुंभ का ब्रह्म उद्देश्य है। शास्त्र कहता है, "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और जीव ही ब्रह्म है! इससे स्पष्ट है कि ब्रह्म ही सत्य है और जगत मिथ्या है! इस जगत की उत्पति ब्रह्म से ही हुई है। इसलिए, इसकी अलग से कोई अस्तित्व नहीं है और ब्रह्म में जो भाव है, वह भी ब्रह्म ही है और जगत में जो धार्मिक और आध्यात्मिक कृत उपलब्ध है, वह साधन है; साध्य तो ब्रह्म ही है। शास्त्र कथन से स्पष्ट है कि "अहं ब्रह्मास्मि" - मैं ब्रह्म हूं! इस अहम भाव को ब्रह्म में स्थित रखने से ही अपने ब्रह्म स्थिति और संपूर्णता का बोध होता है।"
वास्तव में, ज्योतिष के दृष्टिकोण से भी देखा जाए तो "कुंभ राशि" जोकि घड़ा का स्वरूप है, जिसके स्वामी सत्य, न्याय और स्थिरता के देवता शनि है, जोकि सत्य अर्थात स्वयं की अनुभूति और दर्शन करा दे तथा स्वयं के साथ न्याय और स्वयं में स्थिरता का बोध कराने में सक्षम हो, और उनके राशि में उनके पिता सूर्य का प्रवेश; सूर्य, जोकि आत्मा, अग्नि, तेज, धर्म, मान - सम्मान के देवता है, उनके प्रवेश से "सूर्य स्वरूप आदित्य" जो ब्रह्म का ही तेज है और जिसके प्रकाश में जगत का आचरण, धर्म - कर्म संपन्न होता है। इसलिए, स्वाभाविक रूप से उनके प्रकाश से स्व प्रकाशित कुंभ का तेज और प्रभाव विकसित तथा पूर्ण होगा।
वृहस्पति, जोकि धर्म और अध्यात्म के देवता हैं, धार्मिक और आध्यात्मिक कृत को बढ़ाएंगे। इसके अतिरिक्त मन के प्रतिनिधी चंद्रमा, जो कि मन, जल, दर्शन और भक्ति के अधिष्ठाता हैं; उनके द्वारा प्रकृति के देवता का समावेश से जो उत्तम संयोग बना है, वही यह प्रयागराज महाकुंभ है।
सभी कुंभों की हृदय स्थली, तीर्थराज प्रयाग में ब्रह्म स्वरूपिणी गंगा, सूर्य पुत्री यमुना और ब्रह्मविद्या वासिनि सरस्वती विराजती हैं, तो त्रिभुवन का संगम दृष्ट होता है और ब्रह्म की शाश्वतता युगों युगों तक प्रवाहित होती रहती है। इसलिए, ब्रह्म, ब्रह्म कृत और ब्रह्म निष्ठ का कभी नाश नहीं होता है।
"ब्रह्म" के इस "ब्रह्मांड" के मध्य में सुशोभित, कुंभ स्वरूप में स्थित तथा आदित्य की तरह प्रकाशित, यम से निर्भय प्रदान करने वाला, शुभगति और शुभ इच्छा प्रदान करने वाला, अपने आश्रय वालों को "ब्रह्म अमृत" प्रदान करने वाला यह महाकुंभ, ब्रह्म कुंभ ही है। जिसके वेद, स्मृतियां और पुराण प्रमाण है, जहां गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती प्रमाण हैं। जहां योग अभ्यास की आवश्यकता नहीं है, यज्ञ या विशिष्ठ दीक्षा तथा दर्शन शास्त्र के ज्ञान की भी आवश्यकता नहीं है। यह महाकुंभ अपने भीतर के कुंभ (हृदयाकाश) में जो आदित्य (ब्रह्म) है, उसे उद्घाटित, प्रकाशित करने का अवसर है तथा अब्रह्म, अविद्या या भ्रम की स्थिति से निकलकर अपने स्वरूप स्थिति को ग्रहण करने का उत्तम प्रयास है।
जिस तरह से पंच तत्व का अस्तित्व ब्रह्म अर्थात आपसे है, और आप प्रकृति में पुरुष रूप में विद्यमान है। तथा जल तत्व से आपकी जल तत्व की शुभता प्राप्त होती है, पृथ्वी से पृथ्वी, अग्नि से अग्नि, वायु से वायु तथा आकाश से कुंभ में स्थित हृदयाकाश की अनुभूति होती है। उसी तरह से "कूटस्थ ब्रह्म" से सम्पूर्ण ब्रह्म स्वरूप का दर्शन होता है। मोक्ष वर्तमान स्थिति से उत्तम स्थिति प्राप्त करना ही है और वह उत्तम स्थिति ब्रह्म स्थिति है तथा वर्तमान स्थिति जगत या माया स्थिति है। इसलिए, शरीर रहते हुए, जगत रहते हुए, जगत को ब्रह्म स्थिति में लीन कर देना ही मोक्ष है और उसी मोक्ष का एक उत्तम साधन है, यह महाकुंभ।
तीर्थराज प्रयाग और त्रिवेणी संगम आदि के चेतन भाव में वही ब्रह्म स्थित हैं, जो ब्रह्म आपमें, हममें और हम सभी के "आत्म स्वरूप" में विद्यमान है। उस ब्रह्म दृष्टि और अनुभूति से इसका परम आनंद लीजिए और इस ब्रह्म "महाकुंभ" में कल्पवास और स्नान कीजिए। " गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधिं कुरू।।" हरि: ॐ
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