भीष्म - प्रतिज्ञा
सुनीता सिंह
किसी मोड़ पर एक दिन, जो मुझको मिली थी, वह कुछ अलग सी थी।
नभ में उड़ते पंछी देखते,
संजीदगी से सब, समझने की कोशिशें करते।
अक्सर समेटने की जुगत में,
जैसे रुई सेमल की बिखरी हुई,
बारिशों से धुली ऋतु निखरी हुई।
जाने कहाँ से हुनर आ गया?
वो जोड़ती रही जो टूटता गया।
समेटती रही जो बिखरता गया।
सब के घावों पर मरहम लगाती रही।
सब के आँसू पोंछती, अपने आँसू छुपाती रही।
अपनों के पग न हो जाएँ घायल कहीं,
अपने पैरों पर देती रही, धार कुल्हाड़ी की।
अपनों की बगिया सजाते हुए,
उसकी अपनी ही बगिया उजड़ती गई।
तपी भी, जली भी, घुटी भी बहुत,
पर शीतल छाया की सौगात लाती रही।
मन की अतल गहराइयों में, छिपकर कहीं रोता हुआ सा,
संग-संग कोई जुनूं भी पला।
जुनूं ने ही किया विवश होगा उसे,
कुछ तो पुकारा निश्चय ही होगा, जीने की बिंदासियत ने उसे।
वह रह-रह कर विद्रोह करती रही,
सुबह से शाम ढलती रही,
कँटीली डगर से निकलती रही,
जली धूप में, किन्तु चलती रही।
जुनूं ने धकेला, दरख़्तों ने खींचा, वो दर्द से बेहाल होती रही।
दिखाई तो दरख़्तों ने छाया सघन।
दोपहर थी सूरज ने भी बढ़ा दी तपन।
विश्राम को पग बढे़ ही थे कि,
दरख़्तों ने तुरत ही अपनी छाया समेटी।
मानो उसे चिढ़ाया गया हो, घनी छाँह की शीतलता दिखाकर।
रुलाया गया हो, मजबूरियों की जड़ता दिखाकर।
छिपाया गया हो, सच झूठ की कोमलता दिखाकर।
दबाया गया हो, नभ में उड़ने की निपुणता दिखाकर।
हराया गया हो, झपकती पलक सी सफलता दिखाकर।
उजाड़ा गया हो, बड़े जतन से बस्तियां बसाकर।
बिगाड़ा गया हो, मीठे सपनों का राज महल सजाकर।
राहें कँटीली तो पहले से थी,
डगर में अकेली वो पहले से थी,
दरख़्तों ने उसे क्या पता, क्या दिया?
बस, क्रूर अपनी विवशता दिखा दी।
उसने जो न किया जुर्म, उसकी सजा दी।
मासूम दंभ विवशता भरा, कि मेरी है छाया पत्ता हरा,
ये मेरी दुनिया का सोना खरा, अकिंचन को नहीं फल ये फला।
दरख़्त राह में जो भी मिला, कमोबेश सब का यही स्वर रहा।
पग ही नहीं, छाले मन पर भी थे।
झुकी तो वही, बाकी तन कर ही थे।
गति भी गई, दुर्गति सी रही,
बिखरती गयी, सँभलती रही,
उसकी आँखों के दीप बुझते गए,
पीड़ा के दिये बस जलते गए।
पर उसे खींच लाई जिजीविषा,
अपनी कमजोरियों से लड़ने की तृषा।
उसने ली थी एक, हिमालय सी भीष्म प्रतिज्ञा,
झुकना नहीं, थकना नहीं,
रुकना नहीं, थमना नहीं,
जमना नहीं, पिघलना नहीं,
सहना नहीं, बिखरना नहीं।
वो गिरती रही, उठती रही,
थकती रही, चलती रही,
बिखरती रही, सँवरती रही,
फिसलती रही, चढ़ती रही,
और फिर अंततः, श्रृंग तक जा पहुँची,
जो उसी की तरह, बिल्कुल अलग सा था,
उसका जहां था, सुकूं भी वहां था।
वो और भी निखर गई थी, मजबूती से सँवर गई थी,
उसकी भीष्म प्रतिज्ञा ने उसे, पुनर्जन्म दे दिया था।
बसंत सा नया कर दिया था।
बसंत सा नया कर दिया था।।
सुनीता सिंह
( पुस्तक नवजीवन से)
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