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क्या से क्या हो गए

क्या से क्या हो गए

ऋषि रंजन पाठक
क्या से क्या हो गए,
शायद यही जीवन है।
संभावनाओं के बीच झूलना ,
अनिश्चितताओं से जूझना।
क्या से क्या हो गए,
एक सपना जो आँखों में बसता था,
अब धुंधला सा लगता है।
कल जो सपने थे,
आज सवाल बन गए।
कल जो ख्वाबों के महल थे,
आज खंडहरों में बदल गए।
जो कल हमारे अपने थे,
आज अजनबी से हो गए।
क्या थे हम,
एक उम्मीद, एक जुनून,
हर राह पर विश्वास के दीप जलते थे,
हर दिशा में सफलता के गीत बजते थे।
क्या थे हम?
चमकते सितारों जैसे,
हर मंज़िल अपनी लगती थी,
हर रास्ता साफ़ और रौशन लगता था।
क्या थे हम?
एक आग, एक रोशनी,
जुनून की लहरों पर सवार,
हर मंज़िल के करीब थे।
क्या थे वो दिन,
खुशबू से भरे,
जहां सपनों की शाखों पर
खुशियों के फूल खिला करते थे।
क्या थे हम?
एक ख्वाब, एक उम्मीद,
हर कदम पर विश्वास था,
हर मंजिल से एक प्यार था।
और अब,
क्या हो गए हैं,
आशंकाओं से घिरे,
अनिश्चितताओं के भँवर में तिरे।
अनसुलझे सवालों में खोए,
हर राह पर बिखरे हुए।
एक अधूरी कहानी,
राहों में बिखरे सवाल,
दिल में उलझनें, और दिमाग में हलचलें।
कुछ ख्वाब अधूरे,
कुछ यादें मिटती जा रही,
हर रुकावट के बाद,
कुछ और थकान सी आ रही।
और आज?
धुंध में लिपटे हुए से,
राहें उलझी, मंज़िलें धुंधली,
हर कदम पर साया है असमंजस का।
सन्नाटे की परतें हैं,
हर राह पर बिखरे पतझड़ के पत्ते,
जिनकी सरसराहट भी चुभती है।
हो सकता था कुछ और,
बन सकते थे कुछ और,
पर समय के थपेड़ों ने
हमें कहीं और मोड़ दिया।
लेकिन फिर भी,
इन संभावनाओं की कोख में
नई आशाएँ पल रही हैं।
क्या थे और क्या हो गए,
शायद यही कहानी है,
जीवन के हर मोड़ की।
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