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थी चाह जिस उड़ान की

थी चाह जिस उड़ान की

डॉ रामकृष्ण मिश्र
थी चाह जिस उड़ान की अवसर नहीं रहा।
संदेश थे अनेक पर अंतर नहीं रहा।।

दीवार सी खड़ी रही बाधा अभाव बन।
जो साथ चल सके वही सहचर नहीं रहा।।

आकाश सा वितान मिलेगा कहाँ मगर।
जो पूज्य- अर्चनीय था पत्थर नहीं रहा।।

आँखें बिछाए बाट जोहते हुए रहे।
हमदर्द था जो सब का मुसाफिर नहीं रहा।।

राहें खुली -खुली रहीं दिन- रात हर कहीं ।
फ़ैला धुआँ - धुआँ कि अब बंकर नहीं रहा।।

आक्रांत पूछते हैं पता आतताई का।
दो गज़ जमीन के सिवा बिस्तर नहीं रहा ।।

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