बांग्लादेश- पाकिस्तान बनाम भारत
डॉ राकेश कुमार आर्य
बांग्लादेश के निर्माण में भारत की भूमिका पर अपनी पीठ थपथपाते हुए कांग्रेस इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की महान उपलब्धि के रूप में प्रचारित प्रसारित करती रही है। उसका कहना रहा है कि श्रीमती गांधी ने इन दोनों देशों को अलग-अलग करके भारत की सुरक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और साहसिक निर्णय लिया था। यद्यपि कांग्रेस यह नहीं बताती कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस साहसिक निर्णय को लेते समय विश्व मानचित्र पर स्थापित हुए नए देश बांग्लादेश को अलग देश की मान्यता क्यों दी ? उसे भारत का ही अंग क्यों नहीं बना लिया था ?
जहां तक हमारी मान्यता है तो बांग्लादेश का अलग देश बनना ही उचित था। वर्तमान परिस्थितियों ने तो यह और भी अधिक सिद्ध कर दिया है कि यदि बांग्लादेश , पाकिस्तान और हिंदुस्तान का मुसलमान एक साथ कर दिया जाए तो सनातन के लिए गंभीर चुनौती खड़ी हो जाएगी ? आज जब भारत में मुसलमान एक चौथाई के लगभग है तो भी वह भारत की ऊर्जा को नकारात्मक क्षेत्र में व्यय करने में जिस प्रकार अपना योगदान दे रहा है , वह भी बहुत ही चिंता का विषय है। वैसे भी भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश का मुसलमान पीढ़ियों से ' एक ' ही रहा है। इसे समझने के लिए हमें विषय को चार चरणों में विभाजित करना होगा। पहला चरण वह है जब बांग्लादेश और पाकिस्तान सनातन राष्ट्र भारत के ही अंग हुआ करते थे। तब यहां की सारी संतति अथवा नागरिक सनातन में ही विश्वास रखते थे। जब मुसलमानों के आक्रमण हुए तो वर्तमान पाकिस्तान और बांग्लादेश की भूमिका तैयार होने लगी। इस्लामीकरण की प्रक्रिया में इस क्षेत्र में तेजी से धर्मांतरण हुआ। जिसके आधार पर यहां मुस्लिम आबादी घनी होती चली गई। इस प्रकार पहला चरण वह है, जब अफगानिस्तान सहित पाकिस्तान और बांग्लादेश के मूल नागरिक के रूप में सनातन धर्मी हुआ करते थे। दूसरा चरण वह है जब मुस्लिम सल्तनत काल और मुगल काल में यहां पर तेजी से धर्मांतरण हुआ । परंतु फिर भी यह लोग एक ही देश के नागरिक बन रहे , यद्यपि उनकी सोच इस्लाम स्वीकार करने के उपरांत भारत को समाप्त कर इसे इस्लामी राष्ट्र बनाने की बनी रही। इसी से प्रेरित होकर अलग देश पाकिस्तान मांगा गया। तीसरा चरण वह है जब पाकिस्तान अस्तित्व में आया और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में बांग्लादेश उसका एक भाग हुआ करता था। चौथा चरण वह है जब बांग्लादेश एक अलग देश के रूप में विश्व मानचित्र पर स्थापित हो गया और भारत के दोनों और दो मुस्लिम देश अस्तित्व में आ गए।
अब प्रश्न है कि इन दोनों देशों में समानता क्या है और भारत के विषय में इनके विचार कैसे हो सकते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर है कि जब ये दोनों देश सनातन भारत के सनातन नागरिकों के रूप में भारत के एक भाग हुआ करते थे , तब इनका चिंतन भारत प्रेमी था। उसके पश्चात इनके भीतर भारत प्रेम की भावना देखना अपने आप को ही मूर्ख बनाना है। सनातन भारत के जिन-जिन अंगों में या भागों में धर्मांतरण की प्रक्रिया तेज हुई और वहां पर मुस्लिम आबादी बढ़ने लगी, वहीं वहीं पर भारत प्रेम समाप्त होकर उग्रवाद, उद्दंडता और भारत विरोध से भरी उच्छ्रंखलता बढ़ती चली गई। इन्हीं दुर्गुणों ने देश का विभाजन करवाया। यहां से भारत विरोध आरंभ हुआ और भारत प्रेम कहीं विलीन हो गया। ज्यों - ज्यों मुस्लिम जनसंख्या बड़ी त्यों- त्यों भारत को समाप्त कर इसका इस्लामीकरण करने की एक सामान्य भावना सामान्य इच्छा के रूप में मुस्लिम समाज में व्याप्त हो गई। जिन्ना इसी ' सामान्य इच्छा' की परिणति था। समझ लीजिए कि उसने मुस्लिम समाज को भारत तोड़ने के लिए तैयार नहीं किया था, बल्कि वह मुस्लिम समाज की सामान्य इच्छा का प्रतीक था। इसलिए उसे पाकिस्तान का जनक मानना भी कहीं तक अपने आप को मूर्ख बनाने जैसा ही है। वास्तविकता यह थी कि पाकिस्तान मुस्लिम जनमानस में जन्म ले चुका था।
जब बांग्लादेश और पाकिस्तान विश्व मानचित्र पर स्थापित नहीं हुए थे, तब भी इन दोनों की सोच एक ही थी कि भारत का इस्लामीकरण किया जाए। उसके पश्चात 1971 तक जब तक कि बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग न हो गया , तब तक भी बांग्लादेश और पाकिस्तान के मुसलमान हिंदुस्तान के मुसलमान के साथ मिलकर भारत के इस्लामीकरण की प्रक्रिया को मूर्त रूप देने के बिंदु पर काम कर रहे थे। यदि उसके पश्चात की स्थिति परिस्थितियों को देखें तो भी यही कहा जा सकता है कि इन तीनों का इस काल में भी अघोषित एजेंडा एक ही रहा है कि भारत का इस्लामीकरण किया जाए ? यानी इस बिंदु पर भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश का मुसलमान एक है कि जैसे भी हो भारत के सनातन स्वरूप को समाप्त किया जाकर सारे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया जाए। इनके गठबंधन के पीछे फिर एक पाकिस्तान की मांग अपना खेल खेल रही है। पाकिस्तान और बांग्लादेश अपने आप को इस महान कार्य को करने के लिए एक कैंप के रूप में समझते हैं, इसीलिए भारत विरोधी हर गतिविधि के लिए वह अपनी भूमि को स्वेच्छा से प्रयोग होने देते हैं। भारत के मुसलमान के माध्यम से वह लक्ष्य तक पहुंचने की चेष्टा करते रहते हैं। जिसके लिए भारत के मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग उन्हें अपना खुला समर्थन देता है।
शेख हसीना को हटाया जाना और वहां पर मोहम्मद यूनुस की सरकार को स्थापित करना केवल चुटकियों का खेल नहीं था। इसमें भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश मुसलमानों की सहमति रही है। सारे बांग्लादेश को सील करके जिस प्रकार वहां पर हिंदुओं की हत्याओं का क्रम चला है , वह सुनियोजित रणनीति के अंतर्गत किया जाने वाला ' नरसंहार ' है । भारत की सरकार चाहे जो कहे परंतु सत्य यही है कि वहां पर हिंदुओं का नरसंहार हुआ है और हो रहा है। भारत का हिंदू समाज यद्यपि वर्तमान परिस्थितियों में बहुत अधिक जागरूक हो चुका है, परंतु जो लोग अभी मुस्लिम समाज के प्रति उदारता का दृष्टिकोण अपनाते हुए धर्मनिरपेक्षता की अफीम लेकर उसके नशे में धुत्त हैं , उन्हें समझ लेना चाहिए कि आज जो कुछ बांग्लादेश में हो रहा है वह भारत के लिए की जाने वाली तैयारी है या कहिए कि उसका पूर्वाभ्यास है। उस समय न तो भीम बचेगा, न दलित बचेगा, न क्षत्रिय बचेगा , न ब्राह्मण बचेगा। कत्लोगारत की मंडी में सबका मोल एक ही होगा।
अब जो परिस्थितियां बनती जा रही हैं ,उनमें यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश खुलकर एक मंच पर आ चुके हैं। उनका यह सम्मेलन वैचारिक दृष्टिकोण से तो पिछली कई शताब्दियों से बना हुआ था ही , अब राजनीतिक दृष्टिकोण से भी वे अपने विचारों के क्रियान्वयन के लिए एक होते जा रहे हैं। उनका यह सम्मेलन उन लोगों के लिए आश्चर्यजनक घटना हो सकती है जो भारतीय उपमहाद्वीप के इस्लामिक इतिहास से अपरिचित हैं या उसकी ओर से जानबूझकर आंख मूंदने का प्रयास करते हैं। परंतु जिन्होंने इतिहास को समझा है या जिन्हें इतिहास की थोड़ी सी भी समझ है, वे इस घटना को अप्रत्याशित नहीं मान रहे हैं। उनके लिए तो यह सब कुछ प्रत्याशित है और भी स्पष्ट करें तो एक ऐसे क्रम का आवश्यक अंग है जो शताब्दियों से घटित होता रहा है। तनिक स्मरण करिए 1557 को, जब अकबर ने संभल कर राज्य करना आरंभ किया था और जहांगीरनामा के अनुसार भारत में लाखों हिंदुओं का कत्ल किया था । उसके पश्चात सही 100 वर्ष बाद की 1657- 58 की घटना को याद कीजिए, जब औरंगजेब ने अपने पिता को जेल में डालकर हिंदुस्तान पर निर्ममता के साथ शासन करना आरंभ किया। फिर 1757 के पलासी के युद्ध को याद कीजिए - जब मुगल तो नहीं थे, परंतु नए मुगल अंग्रेज के रूप में भारत आ गए, फिर 1857 को स्मरण कीजिए। जब नये मुगलों से मुक्ति के लिए भारत में संघर्ष हुआ, परंतु उसके बाद मुसलमानों ने इस युक्ति पर काम करना आरंभ कर दिया कि हमारा भारत के सनातन से क्या लेना देना ? हमें तो अलग देश चाहिए और उसके बाद 1947 को याद कीजिए जब उनका नया देश अस्तित्व में आ गया। सोचिए, इनमें से कौन सी शताब्दी ऐसी रही है जो मुस्लिम के दृष्टिकोण से भारत विरोध की न रही हो ? इसके उपरांत भी यदि हिंदू समाज सोए रहना चाहता है और राष्ट्र के लिए समर्पित होकर कुछ करना नहीं चाहता तो क्या कहा जा सकता है ? समय की आवश्यकता है कि भारत विरोधी सोच के गठबंधन को तोड़ो। राष्ट्र बचाओ। राष्ट्र का धर्म बचाओ। राष्ट्र धर्म का निर्वाह करो। समय की पुकार यही है।
कांग्रेस के लिए भारत के सनातन का इतिहास कोई मायने नहीं रखता। यह भारत के इतिहास को नेहरू के दृष्टिकोण से पढ़ती है । जिसके अंतर्गत भारतीय उपमहाद्वीप में प्रारंभ से ही कोई मुस्लिम समस्या देखी ही नहीं गई है। उनके दृष्टिकोण में मुस्लिम समस्या न होकर एक ' हिंदू ' नाम की समस्या है जो मुस्लिम के साथ समन्वय करना नहीं चाहती। इसी बात को नेहरू जी कांग्रेस को पढाकर गए थे। डिस्कवरी ऑफ इंडिया उनकी पुस्तक पुस्तक नहीं है, बल्कि इसे ' नेहरू डॉक्ट्रिन' कहा जाना चाहिए। आज राहुल गांधी इसी ' डॉक्ट्रिन ' पर काम कर रहे हैं। इसलिए राहुल गांधी से अधिक अपेक्षा मत रखिए, अपेक्षा उन लोगों से रखिए जो सनातन के लिए काम करने का संकल्प लेकर राजनीति में आए हैं । उन्हीं से प्रश्न पूछिए की समस्या क्या है और उसका समाधान क्या है ?
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है )
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