कलम ठीक नहीं तेरी ये आदत ,
सच को सच तुम तो कहते हो ।चल रहे तुम कलियुग में किन्तु ,
जैसे सत्ययुग में तुम बहते हो ।।
जानते हो तुम ये उल्टा जमाना ,
आज सत्य ही दोषयुक्त होता है ।
इस युग में जो जितना फरेब हो ,
आज वही तो दोषमुक्त होता है ।।
अग्नि को तुम अग्नि हो कहते ,
अग्नि को रटते राख हो जाएगा ।
रहोगे तुम इस युग में जीवित ,
किन्तु तेरा ये साख खो जाएगा ।।
बागी को तुम तो बागी हो कहते ,
दागी को तुम कह देते हो दागी ।
दागी बागी तुम तो रटते रटते ,
तुम स्वयं ही बन जाते हो बागी ।।
बोलूंगा तो मैं सदैव सत्य ही ,
बेशक मै आग से ही खेलूंगा ।
बेशक मैं जल जाऊॅं मर जाऊॅं ,
हर खुशी हर ग़म को झेलूॅंगा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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