मैं हूँ बस आदमी, मुझे इंसान बना दो,
भटकता हूँ सब और, कोई मुकाम बता दो।
मिटटी के कण धुल हूँ, नहीं किसी काम का,
मुझको भी किसी नीव का पाषाण बना दो।
मैं हूँ बस आदमी, मुझे इंसान बना दो।
बिखरा हूँ हर तरफ, नहीं कोई पहचान है,
दीप बन जल सकूँ राह में, जलना सिखा दो।
बूढ़ा हुआ हूँ उम्र से, समय व्यर्थ गवायाँ,
काम आ सकूँ किसी के, कोई राह बता दो।
मैं हूँ बस आदमी, मुझे इंसान बना दो।
छल कपट मन मे भरा, बस आदमी हूँ मैं,
दूब सा विनम्र, पीपल सा गुणवान बना दो।
आँधियाँ जो गुजरें, उनके भी तलवे सहला सकूँ,
इंसानियत की राह की, पहचान बता दो।
मैं हूँ बस आदमी, मुझे इंसान बना दो।
जीवन है व्यर्थ, गर आदमी बना रहा,
इंसान बन सकूँ, कोई तदवीर बता दो।
भटका हूँ उम्र भर, मंजिल की तलाश मे,
मुझको भी नदी की, एक धार बना दो।
मैं हूँ बस आदमी, मुझे इंसान बना दो।
नहीं चाह मेरी, मैं समंदर बन सकूँ,
मीठा रहे पानी, कहीं प्यास बुझा दो।
सूरज की गर्मी से जल, गर बदल बन गया,
जन-जन की प्यास बुझाने, धरती पर बरसा दो।
मैं हूँ बस आदमी, मुझे इंसान बना दो।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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