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मेरा जीवन जैसे- तैसे

मेरा जीवन जैसे- तैसे

डॉ रामकृष्ण मिश्र
मेरा जीवन जैसे- तैसे
पड़ा गया अखवार हुआ।
और शाम तक चलता फिरता
रहा मगर बेकार हुआ।।


गये ताजगी के दिन जिसमे
ललक भरी आकांक्षा थी।
अक्षर -अक्षर बँट जानै पर भी
थोड़ी अभिलाषा थी। ।
तथाकथित रद्दी के के जैसा
बिकने को लाचार‌ हुआ।।


संघर्षों की पिछली बाते
फटी संचिकाओं जैसी
अनपेक्षित पत्रावर्णी की
धूल भरी काया जैसी।।
आँखों पर चढ़ गया बुढ़ापा
मन बेढब आकार हुआ।।


समय बडे साहब के जैसा
आदेशों का बंडल है।
और गृहस्थी में फुसलाता
खाली पड़ा कमंडल हे।।
चाह रही पर अब तक बैठा रहा ,
न गंगा पार हुआ।।
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