नये रिश्ते
सुरेन्द्र कुमार रंजनरिश्ते-नातों की मेरी कहानी अजब,
नाते टूटे भी हैं, रिश्ते बदले हैं सब ।
दोस्त देखे बहुत, रिश्ते-नातों को भी,
अब तो रिश्ते नये, दुश्मनी की तलब ।
पानी सर से जब ऊपर बहने लगे,
भूल जाता मनुष्य रिश्ते-नातों को तब ।
दोस्ती के लिए मैं बहा दूँ लहू,
दुश्मनी से भी पीछे मैं हटता हूँ कब ।
समझता था जिसको मैं सागर हृदय,
वो भी निकला कुएँ का मेंढक बेढब ।
प्राण पन से निभाता था जिसको कभी,
आज खण्डित नये रिश्तों का है सबब।
पहले खुद को शिकारी समझते थे जो,
खुद शिकार बनकर सिसकते हैं अब।
बढ़-चढ़कर निबाहूँगा रिश्ते नये, चाहे करना पड़े मुझको कुछ भी, ऐ रब।
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