स्वेटर और शाल
कैसी आई है यह सर्दी ,कैसा किया है कमाल ।
कैसे इसके निज जलवे ,
कैसा मचाया है धमाल ।।
सर्दी तेरे अपने जलवे ,
लंबे चौड़े तेरे हैं जाल ।
युवा बाल को छूते नहीं ,
बुजुर्गों हेतु बनते काल ।।
वर्षांत वर्षारंभ दिखाते ,
विशेष रूप तुम चाल ।
ठंढ रूप कहर बरसाते ,
संक्रांति तक डेरा डाल ।।
थोड़ी भी दया न करते ,
यादगार बनता है साल ।
रजाई अग्नि ही सहारा ,
जन के स्वेटर और शाल ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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