कठपुतली
दुनिया है यह रंगमंच हमारी ,हम सब बने पड़े कठपुतली ।
हम सब मूरत यहाॅं पे पड़े हैं ,
अदृश्य नचानेवाला है पुतली ।।
हम तो यहाॅं पर नाचने वाले ,
हमें नचाने वाला तो और है ।
देखने दिखनेवाले हम हैं सारे ,
दिखानेवाला तो अन्य ठौर है ।।
पाप पुण्य तो बना है जगत में ,
जगत में बना है धर्म अधर्म ।
मानव हेतु बना सत्कर्म यह ,
कुत्तों हेतु बना है यह दुष्कर्म ।।
नाचने वाले हम सब बहुत हैं ,
नचानेवाले के जब होते इशारे ।
नचानेवाले तो हैं देवकीनंदन ,
हम सब उनके ही बने प्यारे ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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