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आँखें खोलो, प्राण!

आँखें खोलो, प्राण!

डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•
(पूर्व यू.प्रोफेसर)
आँखें खोलो, प्राण!
प्रबल प्रभंजन का बल पा कर तिनका गगन चढ़े,
सिद्धिपाणि ज्ञानेश्वर की महिषी भी वेद पढ़े ;
तर्क -बुद्धि की कुछ भी नहीं बिसात ।
आँखें खोलो, प्राण !
कण-कण में ब्रह्माण्ड समाया,घट-घट राम रमे;
सर्जन और विसर्जन का क्रम पल भर भी न थमे;
चक्र काल का घूम रहा दिन-रात।
आँखें खोलो,प्राण!
जूठे बेर खिला राघव को नाच रही शबरी,
प्रेम-पगी पगली की बरबस खुल जाए कबरी;
जन्मों के तप की अमोल सौगात।
आँखें खोलो,प्राण!
राका को आमन्त्रण देती रहती सदा कुहू,
जीवन-यज्ञ-अनल-तर्पण में तत्पर प्राण-जुहू
दु:ख-पंक में खिलता सुख-जलजात।
आँखें खोलो,प्राण!
क्षत-विक्षत पर्वत,गरलायित नदियाँ बिलख रहीं,
चीर-हरण से वनदेवी है थर -थर काँप रही ;
मनुज-वेश में निर्दय दानव-व्रात।
आँखें खोलो, प्राण!
सर्वंसहा धरा पर जब खल-अत्याचार बढ़े,
तब जग-जननी महाशक्ति का भीषण कोप चढ़े;
अपनी ही करनी का सब प्रतिघात।
आँखें खोलो,प्राण!
धूलधूमभुक् मेघ दग्ध धरती का ताप हरे,
आशावसन नीलकंठ माया का आँचल भरे;
तिमिरभक्ष शशधर से जगमग रात।
आँखें खोलो, प्राण!
पल-पल मरना छोड़ो,जीवन का संधान करो;
यथाशक्ति सुख बाँटो,धरती का संताप हरो;
मानवता से बड़ी नहीं कुछ बात। आँखें खोलो, प्राण!
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