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अंत ही आरंभ है

अंत ही आरंभ है

भोर हुई सुबह का सूरज शाम ढले छिप जाता।
घनघोर अंधेरी रात ढले नया सवेरा फिर आता।

अंत ही आरंभ प्रिय नव सृजन नव प्रभात का।
जब उजाला हो जग में अंधियारा मिटे रात का।


उत्पत्ति विनाश चक्र सृष्टि में फिर चलता रहता।
वृद्धि और विकास क्रम कुदरत में पलता रहता।

जीवन सत्य मृत्यु है फिर किस बात का दंभ है।
बनना बिगड़ना चलता रहता अंत ही आरंभ है।

बचपन बीता आई जवानी बाद बुढ़ापा है तैयार।
भोर बाद दोपहर हुई शाम ढले छाया अंधकार।

रजनी रूप धरे निरंतर भोर का प्रकाश प्रारंभ है।
सूर्यदेव करें आलोक जगत में अंत ही आरंभ है।

नदिया पर्वत पवन घटाएं मस्त बहारें मन को भाए।
हंसी वादियां मन लुभाती कुदरत भी खुद पे इतराए।


जीवन चक्र चलता जाए बीज से तरु का प्रारंभ है।
समंदर समाती सरिताएं कहती अंत ही आरंभ है।


रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनूं राजस्थान रचना स्वरचित व मौलिक है
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