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स्वामी विवेकानंद और युवा - चिंतन

स्वामी विवेकानंद और युवा - चिंतन

लेखक - अवधेश झा

स्वामी विवेकानंद ब्रह्म और प्रकृति की तरह अपनी पूर्ण अवस्था में थे और पूर्ण अवस्था में ही ब्रह्म में लीन हो गए। इसलिए, उनकी पूर्णता सर्वत्र व्याप्त है। स्वामी जी युवाओं के प्रेरणा स्रोत है और युवाओं के लिए जो ब्रह्म वाक्य उन्होंने कहा है, वह हमेशा से श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ रहेगा। उन्होंने, युवाओं को हीन भावनाओं से ऊपर उठकर एक उच्च एवं आदर्श व्यक्तित्व विकसित करने को कहा है। 
          स्वामी विवेकानंद के संबंध में जस्टिस राजेंद्र प्रसाद, पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना ने कहा कि "ब्रह्म स्वयं ही विवेकानंद के रूप में उपस्थित होकर महान कार्यों का संपादन किया है। यह उनके ब्रह्म के प्रति निष्ठा से स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने भारतीय वेदांत दर्शन, योग दर्शन आदि के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व मंडल को उच्च व्यक्तित्व और आत्म दर्शन से प्रभावित किया है। उन्होंने बाहर की यात्रा की अपेक्षा, अपने भीतर या स्वयं को जानने के लिए कहा है तथा अपने भीतर की ब्रह्म शक्ति को उद्घाटित करने पर बल दिया है। क्योंकि, इंद्रियों से जो ज्ञान हो रहा है, उस ज्ञान को "वास्तविक ज्ञान" नहीं समझना ही "आत्म ज्ञान" है। आत्म ज्ञान ही स्वयं का पूर्ण ज्ञान है।  इसलिए, स्वामी विवेकानंद का ज्ञान शाश्वत, सनातन और आत्मा या ब्रह्म का ज्ञान था और वह ज्ञान व्यक्ति की उपस्थिति या अनुपस्थिति पर निर्भर नहीं करता है। उनकी कीर्ति सदा विद्यमान रहती है।"
           स्वामी जी का जन्म 12 जनवरी 1863 में हुआ था, यह वह समय था जिसमें अंग्रेजी शासन का बोल बाला था। ऐसे समय में भी महान विचारक स्वामी जी भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानवता का गौरव बढ़ाया। स्वामी विवेकानंद ने भारत की वेद व आध्यात्मिक विरासत को आगे बढ़ाया। वह स्वयं भारतीय दर्शन के गुढ़ ज्ञाता थे और हिन्दू परंपरा के एकनिष्ठ संकल्पित ऐसे संन्यासी थे, जिन्होंने हिंदू धर्म और सनातन धर्म के संदेश को सम्पूर्ण विश्व मंडल में फैलाया तथा अपनी धर्म, संस्कृति की सर्वोच्चता स्थापित किया।
         स्वामी जी हमेशा सकारात्मक पक्ष की ओर युवाओं का ध्यान आकृष्ट किया है। तीस वर्ष की आयु में उन्होंने अमेरिका के शिकागो में "विश्व धर्म सम्मेलन" में भारत का प्रतिनिधित्व किया और हिंदू तथा सनातन धर्म की सार्वभौमिकता से पूरे विश्व को अवगत करवाया। स्वामी जी के विषय में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।" यही भारत की पहचान है। भारत जिस विश्व गुरु के लिए जाना जाता है; वह ज्ञान परंपरा, वैदिक ज्ञान परंपरा ही है!  भारत की ज्ञान और वेद - वेदांत की विरासत ही उसका मूल पहचान है। स्वामी जी वेदांत दर्शन के वाक्यों से भी युवाओं के लिए स्पष्ट संदेश दिया था।

वेदांत दर्शन से युवा जागृति:
    "हे सुंदर युवक! जो सबमें सर्वोच्च है, वह तुम हो। संसार की सारी शक्ति तुम्हारे भीतर है, उसे पहचानो। तुम पवित्र हो, ब्रह्म स्वरूप हो और तुम्हारे ब्रह्म या आत्म स्वरूप से ही यह समस्त निर्माण हुआ है।"

 इस संबंध में शास्त्र भी कहता है;                             
अत: समुद्र गिरयश्च सर्वेऽस्मात्स्यदंते सिंधव: सर्वरूप:।
अतश्च सर्व ओषधयो रसश्च येनैषा भूतैस्थते ह्यन्तरात्मा।।
आत्मा से ही समुद्र, सभी पर्वत और नाना प्रकार की नदियाँ उत्पन्न हुई हैं; उसी से सभी औषधियाँ और स्वाद भी उत्पन्न हुए हैं, जो भूतों से घिरे हुए हैं, अर्थात स्थूल तत्वों के मध्य में आत्मा अर्थात् सूक्ष्म शरीर में बैठा है।
इस सृष्टि में जो भी दृश्य है, उसकी उत्पति, स्थिति और प्रलय आत्मा में ही होता है। वह आत्मा पुरुष रूप में सर्वत्र व्याप्त है। वह विराट और सूक्ष्म भी है। इस संबंध में शास्त्र कहता है।
 
पुरुष एवेदं विश्वं कर्म तपो ब्रह्म परमार्थम्।
एतद्यो वेद निहितं गुहायां सोऽविद्याग्रंथि विकीरतिहा सोम्या।।
 इस तरह से यह पुरुष ही यह सब जगत है - कर्म और तप। यह सब ब्रह्म है, परम् और अमर है। जो इसे हृदयगुहा में स्थित जानकर यहाँ भी अज्ञान की गाँठ खोल देता है, हे सुन्दर युवक! उसे ही वरण करो। 

   उपनिषदों द्वारा प्रदत्त महान् अस्त्र को लेकर, उसमें निरन्तर ध्यान से नुकीला किया हुआ बाण स्थिर करके, तथा मन को ब्रह्म में स्थिर करके, हे सुन्दर युवक! अपने लक्ष्य पर प्रहार करो। इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे तुम प्राप्त नहीं कर सकते हो। सम्पूर्ण सृष्टि ही तुम्हारी है। 

  हे सुंदर युवा, अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करो। उससे सुंदर न कोई था, न है और न भविष्य में होगा। उस चिर सुंदर को जानो। जो नित्य युवा है, वह आत्मा ही है और वह तुम ही हो। तुम समस्त अवस्था से परे है और सदा पूर्ण हो। अपनी पूर्णता हो प्रदर्शित और अपने लक्ष्य को परिलक्षित करो।

गुरु के प्रति निष्ठा:

स्वामी विवेकानंद योगी स्वभाव के थे, उनके गुरु महान योगी एवं माता काली के उपासक श्री रामकृष्ण परमहंस थे। अपने गुरु की निकटता से उनकी आध्यात्मिक शक्ति जागृत हो गई थी और उन्होंने अपनी शक्ति और गुरु की आशीर्वाद से सम्पूर्ण विश्व को भारतीय सनातन धर्म और दर्शन के श्रेष्ठ विचारों से अवगत कराया और वह अपने गुरु में ही ईश्वर को देखते थे। इसलिए, उनका गुरु ही ईश्वर था। वह जानते थे कि शुद्ध बुद्धि वाला मनुष्य मन से जिन- जिन लोकों की कामना करता है, तथा जिन- जिन विषयों की कामना करता है, वह उन- उन लोकों और पदार्थों को प्राप्त कर लेता है; इसलिए जो भूति (प्रकट शक्ति) की कामना करता है, उसे आत्म स्वरूप स्वयं को भजना चाहिए। गुरु को भजना चाहिए, सम्पूर्ण माताओं की माता धरती माता को भजना चाहिए।

राष्ट्र के प्रति प्रेम और समर्पण:

धरती माता के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उन्होंने गीता के श्लोक के माध्यम से कहा है।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। 
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न- भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े- मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
    उसी तरह से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ आचरण करने वाले पुरुष भी इसी धरती माता की गोद में सो जाती है। यह धरती समस्त आश्रय दाताओं की जननी है। इस मातृ भूमि को, इस जन्म भूमि कोटि कोटि प्रणाम है।

स्वामी जी ने धर्म सभा में कहा था। यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। 
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो - मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
     इस श्लोक से स्पष्ट है कि शरीर अवस्था से पूर्व और पश्चात जो आत्म अवस्था है। वह माता की ही अवस्था है, चाहे वह जन्म देने वाली माता की गर्भ हो या सभी माताओं की माता धरती माता की गर्भ हो या फिर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की योग माता और भगवान विष्णु की बहिरंगा शक्ति की आंचल हो; वह सुप्त अवस्था ही पूर्ण और अंतिम अवस्था है।

स्वामी जी का वैश्विक व्यक्तित्व: 

स्वामी विवेकानंद 11 सितंबर 1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में अपने भाषण की शुरुआत अमेरिकी बहनों और भाईयों के रूप में की, जिससे वहां का माहौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। चूंकि वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, इसलिए भारत भूमि के सभी समुदायों, वर्गों व लाखों - करोड़ों भारतीयों तथा धर्म भूमि की तरफ से धन्यवाद दिया। उन्होंने ऊंचे स्वर में कहा था - " मुझे उस धर्म व राष्ट्र से संबंध रखने पर गर्व है जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिकता सिखाई है। हम न केवल सार्वभौमिक सहनशीलता में विश्वास रखते हैं बल्कि सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे भारतीय होने पर गर्व है, जिसने विभिन्न राष्ट्रों के पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।" उनके भारतीय धर्मनिरपेक्षता के विचार सभी धर्मों के लिए समान थे। उन्होंने सदैव सार्वजनिक संस्कृति के रूप में धार्मिक सहिष्णुता का समर्थन किया है।
  स्वामीजी के बारे में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने लिखा है "स्वामी जी इसलिए महान हैं, क्योंकि उन्होंने पूर्व और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान में सामंजस्य स्थापित किया है, देशवासियों ने उनकी शिक्षाओं से अभूतपूर्व आत्म - सम्मान, आत्मनिर्भरता और आत्म - विश्वास का आत्मसात किया है।"
  ब्रिटिश इतिहासकार ए. एल. बाशम ने कहा था - स्वामी विवेकानंद जी को भविष्य में आधुनिक दुनिया के प्रमुख निर्माता के रूप में याद किया जाएगा।"
 स्वामी विवेकानंद ने युवाओं के लिए कहा था " उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए"। वे युवाओं को परिवर्तन की अग्रदूत समझते थे। इसलिए, युवाओं में आशा और उम्मीद देखते थे।
  उन्होंने कहा था - " युवाओं में लोहे जैसी मांसपेशियां और फौलादी नसें हैं, जिनका हृदय वज्र तुल्य संकल्पित है।" इसलिए, प्रत्येक युवा विशाल हृदय के साथ मातृभूमि और जनता की सेवा करने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति रखे।
 स्वामी जी का दर्शन और आदर्श भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा का बड़ा स्त्रोत है। वे महान विचारक, ओजस्वी वक्ता, दूरदर्शी, कवि और युवा संरक्षक थे। स्वामी जी के बताए रास्ते पर चलकर युवा एक भारत, श्रेष्ठ भारत, आत्म निर्भर भारत, स्वस्थ भारत और विश्व गुरु भारत का निर्माण कर सकता है।
  इस भारत माता से सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सत्य, सर्वोच्च और सनातन कुछ भी नहीं है। इसलिए, हे सुंदर युवक अपनी मातृ भूमि को जानो और उन पर सर्वोच्च निछावर कर दो।             _____________________
(लेखक: अवधेश झा, योग रिसर्च फाउंडेशन, मियामी, फ्लोरिडा, यूएसए के भारतीय यूनिट (ज्योतिर्मय ट्रस्ट) के ट्रस्टी एवं समन्वयक तथा
श्रीहरि ज्योतिष के संस्थापक हैं)

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