ट्रंप की वापसी, भारत और विश्व शांति
डॉ राकेश कुमार आर्य
जब कई भविष्यवक्ता 2025 को लेकर यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि इस वर्ष में तीसरा विश्व युद्ध आरंभ हो सकता है, तब अमेरिका में ट्रंप एक बार पुनः अपने देश के राष्ट्रपति बनने में सफल हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि ट्रंप भारत के प्रति जो बाईडेन की अपेक्षा कहीं अधिक मित्रतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाने के लिए जाने जाते रहे हैं। परन्तु उन्होंने सत्ता संभालते ही जिस प्रकार अपने एक महत्वपूर्ण पड़ोसी देश की टेंशन बढ़ाई है, वह विश्व शांति के लिए एक खतरनाक संकेत के रूप में देखी जानी चाहिए। वर्तमान समय में विश्व पारस्परिक विश्वास के संकट के दौर से गुजर रहा है। एक देश का दूसरे पर विश्वास डगमगा रहा है। हृदय की गहराइयों से कोई भी देश किसी का मित्र नहीं है। भीतर ही भीतर किसने किसके साथ कैसी संधि कर रखी है अर्थात दो देशों ने किसी तीसरे देश को मिटाने के लिए कैसे संकल्प पत्रों पर हस्ताक्षर किए हुए हैं ?- यह अभी किसी को ज्ञात नहीं है। हम सभी जानते हैं कि जब द्वितीय विश्व युद्ध हुआ था तो उसकी समाप्ति के पश्चात लोगों को पता चला था कि कई देश ऐसे थे, जिन्होंने पहले से ही किसी तीसरे देश को समाप्त करने का संकल्प ले लिया था और उसके लिए विधिवत गुप्त सन्धि कर ली थी।
अविश्वास और असुरक्षा के इस परिवेश में हथियारों की दौड़ अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। परमाणु शक्ति संपन्न होने के लिए देशों में इस समय प्रतिस्पर्धा सी पैदा हो गई है। जो देश अपनी सुरक्षा नहीं कर सकते, उनकी चिंता को समझा जा सकता है। ऊपरी परिवेश कुछ इस प्रकार का है कि दानवतावादी शक्तियां प्रबल होती दिखाई दे रही हैं । किसी भी वैश्विक मंच से संपूर्ण मानव जाति के विकास के लिए कोई योजना प्रस्तुत होती हुई नहीं देखी जा रही। विश्व शांति की बात करने वाले लोग भी मंचों का दुरुपयोग कर रहे हैं। उनकी दोगली चाल को लोग समझ रहे हैं। कोई भी नेता विश्व मंचों पर वास्तविक विश्व शांति के लिए कोई अपना संकल्प प्रस्ताव या कार्य योजना प्रस्तुत करता हुआ दिखाई नहीं दे रहा। वास्तव में यह मानसिकता भी यही बताती है कि पारस्परिक अविश्वास का संकट सर्वत्र व्याप्त है। अनेक देश शांति को हथियारों के माध्यम से खरीदने की मूर्खतापूर्ण चेष्टा करते हुए दिखाई दे रहे हैं। दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही इस बीमारी का उपचार कुछ उसी प्रकार किया जा रहा है जैसे कोई जलती हुई आग में घी डालकर यह आशा करता हो कि अब आग बुझ जाएगी।
ट्रंप ने भी कोई ऐसा संकेत नहीं दिया है कि विश्व शांति के लिए उनके पास ऐसी कौन सी कार्य योजना है, जिसको अमल में लाकर वह सभी देशों के बीच व्याप्त अविश्वास को दूर करने में सफल हो जाएंगे ? इस सबके बीच उन्होंने भारत के साथ अपनी पूर्व परिचित मित्रता को निभाने के कई संकेत दिए हैं। जिसका तात्कालिक लाभ भारत को बांग्लादेश के संदर्भ में मिलना निश्चित सा दिखाई दे रहा है। इस देश की अस्थाई सरकार जिस प्रकार हिंदुओं का कत्लेआम करती जा रही थी, उसमें कुछ स्थिरता सी आती हुई दिखाई दे रही है। इसके साथ ही साथ भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान और चीन भी कुछ अजीब सी बेचैनी अनुभव कर रहे हैं। अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति के शासनकाल के दौरान जिस प्रकार मालदीव, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल सहित भारत का लगभग प्रत्येक पड़ोसी भारत को आंख दिखाने की स्थिति में आता जा रहा था, उस पर अब लगाम सी लगती हुई दिखाई देने लगी है। यद्यपि हम सभी जानते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप अधिकतम ४ वर्ष ही अपने पद पर रह सकते हैं। उसके बाद उनका लौटना निश्चित नहीं अपितु संवैधानिक दृष्टिकोण से पूर्णतया निषिद्ध है। कहने का अभिप्राय है कि जब ट्रंप ४ वर्ष पश्चात नहीं रहेंगे तो क्या होगा ? क्या तब तक भारत का प्रत्येक पड़ोसी अपना हृदय परिवर्तन कर चुका होगा या इन चार वर्षो के काल में ट्रंप उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाकर सीधे रास्ते पर डाल जाएंगे ? निश्चित रूप से दोनों बातों में से कोई भी नहीं होने वाली। इसलिए भारत को तात्कालिक आधार पर चाहे कुछ राहत मिल जाए, परंतु यह स्थाई नहीं होगी। हो सकता है कि ट्रंप के जाने के बाद यह और भी घातक रूप लेकर लौट कर आए। स्पष्ट है कि इन चार वर्षो में भारत को आगे के समय के लिए बहुत कुछ तैयारी करनी होगी।
विश्व शांति के लिए वैश्विक नेताओं की नीतियों का सबसे बड़ा दोष यह है कि वे टंगड़ी मारकर एक दूसरे को व्यापार या उन्नति के क्षेत्र में पीछे धकेलने की घृणास्पद सोच रखते हैं।
वास्तव में यह मानसिकता वर्तमान वैश्विक अर्थनीति की है जिसमें प्रत्येक देश दूसरे देश को आर्थिक रूप से पीछे छोड़कर आगे निकलने की दौड़ में सम्मिलित रहता है। लोगों की मानसिकता होती है कि व्यापार के क्षेत्र में कोई किसी का नहीं होता। संबंधों की संवेदनशीलता को घर में खूंटी पर टांग कर आना होता है। इस प्रकार की व्यवहारशून्य अर्थनीति ने मानव को हृदयशून्य बना दिया है। इसी संवेदनहीनता ने वर्तमान विश्व को प्रतिस्पर्धा की अमानवीय सोच में धकेल दिया है। हमें नहीं लगता कि बीमारी के इस मूल पर कोई सकारात्मक चिंतन ट्रंप के पास होगा, जो घाव पर मरहम का काम करेगा। वह स्वयं अपने देश को व्यापार के क्षेत्र में शिखर पर स्थापित हुआ देखना चाहते हैं । इसके लिए चाहे जितने देशों की छाती पर उन्हें हथौड़ा चलाना पड़ेगा, वह चलाएंगे।
ऐसे में 2025 में भी विश्व शांति एक मृग मरीचिका बनी रहेगी।
वैश्विक परिवेश अविश्वास के संकट से जूझता रहेगा। जिसमें कोई अप्रत्याशित विस्फोट होना भी संभव है।
जहां तक भारत की बात है तो भारत के पास व्यापार के स्थान पर ब्यौहार अर्थात व्यवहार की अर्थनीति है। जिसमें संबंधों को वरीयता देते हुए संवेदनात्मक भावों से भरा ह्रदय रखना आवश्यक माना जाता है। लोग एक दूसरे को सहयोग देने के दृष्टिकोण से साथ चलने में आनंद की अनुभूति करते हैं। भारत की मोदी सरकार भारत की इस परंपरागत मानवीय अर्थनीति को जितना ही अधिक व्यवहार में लाने का प्रयास करेगी, उतना ही विश्व सुख और शांति का अनुभव करेगा। देखते हैं अपने मित्र ट्रंप के साथ मोदी भारत की अर्थनीति को वैश्विक मान्यता दिलाने में कितने सफल होंगे ?
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )
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