जाड़ा पाला से कबो अझुराइल नइखीं।
अपना दादी के नुक्सा भुलाइल नइखीं।।पौस माघ के ठंडी बड़ा कठोर कहल जाला।
बचवन आ बुढ़वन से तनिको ना सहाला।।
मुड़ी कान ढंक के राखला में गुजारा बा।
देहि पर चादर लपेटल ही सहारा बा।।
ठंडी में जे केहू बेसी फैशन देखाई।
दवा खाइल शुरू होई, जब बिमार पड़ जाई।।
बचपन में दादी के गोदी सहारा रहे।
पगड़ी बांधे बुढ़ा लोग, बोरसी आग तापत रहे।।
अब ऐ बुढ़ापा में, दादी कहाँ से आई।
खा पी के पड़ल रह, ओढ़ के मोट रजाई।।
अब बुढ़ऊ तनको जाड़ा पाला से अझुरइब।
सहन ना होई पौस माघ के ठंडी, उपर चल जइब।।
जय प्रकाश कुवंर
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