मन की अपनी व्यथा सुना नहीं सकता।
डॉ रामकृष्ण मिश्रमन की अपनी व्यथा सुना नहीं सकता।
इस तरह दर्द भी अपने भुना नहीं सकता।।
है तो बाजार आदमी भी यहाँ बिकता है।
किन्तु अपनों को भी अच्छा बना नहीं सकता।।
लोग हाथों में अपनी जान लिए भाग रहे।
हो गये हम बड़े कितने बता नही सकता।।
हर जगह चीखते हुए खड़े रहे खतरे।
हादसे से कोई वैसे बचा नहीं सकता।।
लोग हैं आग -आग खेल रहे अपने मन।
यह न कहिए उन्हें कोई मना नही सकता। ।
कागजों पर सफेद दाग उभर आता है। योजना लाख हो कोई मिटा नहीं सकता।।
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