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छिपी हुई चाहत सबमें होती ,

छिपी हुई चाहत सबमें होती ,

कला चाहिए उसे उभारने की ।
उठे यदि इसके विपरीत तरंगें ,
उर्जा चाहिए उसको मारने की ।।
कृपा हुई प्रकृति की यदि तो ,
वह चाहत बाहर आ जाती है ।
आती बाहर जो प्रतिभा बीच ,
आकर्षण बनकर छा जाती है ।।
छिपी हुई चाहत है निकलती ,
चाहत के रूप प्रतिभा बनकर ।
जब तक रही वह छिप कोने में ,
बाहर निकलती है तब तनकर ।।
मानव जीवन जब समाप्त होते ,
तन जलाए या दफनाए जाते हैं ।
मन के मलाल मन में ही रहकर ,
जीवन में स्वयं दफन हो जाते हैं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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