डॉ. ज्ञान सर का व्यंग्य संग्रह ‘नेपथ्य लीला’ पढ़ रहा था…
डॉ. मुकेश असीमितसच कहूं तो तीसरी बार पढ़ रहा हूं।
अब इसे मेरा धीमा सीखना कहिए या read between the lines की चाह—
पता नहीं!
एक व्यंग्य रचना ‘एक खूबसूरत ख़ंजर’ पर ठिठक गया।
दो बार पढ़ा, तीन बार पढ़ा…
हर बार कोई नई परत खुली।
कोई नया वार, कोई नई नक्काशी, कोई नयी मार ,
कोई नया रूप…
फिर कुछ लिखने का मन हुआ।
जो भी बन पड़ा,
वो आपके सामने है।
"खूबसूरत ख़ंजर"
जीत कर अनगिनित लड़ाइयाँ ,
सत्ता के सिंहासन तक पहुँचा,
तो देखा—
रत्न- जटित ख़ंजर,
सत्ताधीशों की अर्चना में आलोकित
अंगीकार किए कई रक्त-रेखाएँ,
मानो वह कोई शिल्प हो,
जो इतिहास की छेनी से गढ़ा गया हो!
साजिशों की महीन बुनावट में,
हर वार को रेशमी स्पर्श दिया गया,
ताकि रक्त की गंध
गुलाबों की सुगंध से दब जाए।
हत्या की बदसूरती
शब्दों की जादूगरी में लिपटी,
गढ़ रही थी न्याय की नई परिभाषा ।
कौन कहे कि यह जुल्म है?
कौन कहे कि यह विद्रोह है?
जब रक्त की बूंदें,
शोषक के सौंदर्यबोध में
संगीत का राग बन जाएं,
जब अत्याचार
इतिहास के पन्नों पर
स्वर्णाक्षरों में लिखा जाए!
कितने ही हस्ताक्षर,
राजकीय मुहरों की दीवारों में
ख़ंजर को निर्दोष होने का
प्रमाण-पत्र देते रहे,
कितने ही प्रशस्ति पत्रों में
धोखे को बलिदान बनाकर
महिमामंडन किया गया।
आह!
यह ख़ंजर, कितना सुंदर,
कितना भव्य,
जिसकी नोक पर
किसी की अंतिम चीख़
बस एक मौन का आभूषण बनकर
महलों में सजाई जाती है!
काल की परिधि में घूमते हुए,
शब्द और लहू का गठबंधन
हर युग में नया रूप धरता रहा,
पर यह ख़ंजर,
हर बार नए नाम,
नए रंग,
नए भ्रमों में
अपनी सुंदरता बचा लेता रहा।
कल जब हत्यारों के साथ
सत्ता की चौखट पर होगा सुसज्जित ,
तो देखना —
नक्काशीदार ख़ंजर मुस्कुरा रहा होगा …
शायद अगले शिकार की प्रतीक्षा में।
(डॉ. मुकेश असीमित)
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