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अपना बना..

अपना बना..

नदी किनारे बैठकर
सोच रही हूँ मैं।
कैसा होगा प्रीतम
सोच रही हूँ मैं।
कभी देखूँ पानी में
कभी देखूँ आकाश।
कोई छवि दिख जाये
उस प्रीतम की मुझे।।


दिल में पीढ़ा बहुत है
प्रीतम को लेकर।
लगन समय भी आ रहा
देखो तो मेरा।
पर मुझको पता नही
कौन और कैसा है वो।
ऐसे कितने सवालो से
मन मेरा अब उलझा रहा।।


जब से मेरा योवन
खिलने जो लगा।
तरह तरह के प्रश्नों ने
दिलको झकजोर दिया।
खोज रही हूँ उनके उत्तर
खुदके ही अंदर से ही मैं।
अब तक तो नही मिले है
मुझको उत्तर इन प्रश्नों के।।


एक अंजाने इंसान से
गठबंधन हो जाता है।
फिर जीवन भर उसके
संग रहना पड़ता।
मानों उसे था उसका
जन्म-जन्म का रिश्ता।
कैसे बन जाते है
देखो अंजाने भी अपने।।


जय जिनेंद्र

संजय जैन "बीना" मुंबई


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