रिश्तों की अलमारी
"इंसान ने अपने घरों को तो बड़ा और आरामदायक बना लिया, लेकिन दिलों को छोटा कर लिया। चीजों को संजोने की होड़ में लगा रहा, पर रिश्तों को संभालना भूल गया।"
वाराणसी का एक संभ्रांत परिवार। परिवार में प्रद्दुम्न, उनकी पत्नी वैष्णवी, माता-पिता और छोटी बहन सृष्टि रहते थे। प्रद्दुम्न एक मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर थे, जबकि वैष्णवी एक शिक्षिका थी। विवाह को तीन वर्ष हो चुके थे, परंतु घर में वह अपनापन नहीं पनप सका जिसकी अपेक्षा एक संयुक्त परिवार से की जाती है।
वैष्णवी की एक खास आदत थी—वह अपनी चीजों को बड़े जतन से संभालती थी। विवाह में मिले महंगे बर्तन, गहने, डिजाइनर साड़ियाँ और मायके से लाया गया हर सामान, वह बड़ी सावधानी से इस्तेमाल कर तुरंत सुरक्षित अलमारी में रख देती थी। एक बार भी किसी चीज़ पर खरोंच आ जाए, तो वह बेचैन हो उठती।
लेकिन जब बात रिश्तों की आती, तो उसकी यही सतर्कता कहीं खो जाती। सास-ससुर की भावनाओं को समझना, ननद की परेशानियों में सहभागी बनना—ये सब बातें उसे बोझिल लगती थीं।
"परिवार की टूटती कड़ियाँ"
सास उषा देवी उम्रदराज़ हो चली थीं। वे चाहती थीं कि वैष्णवी उनके पास बैठकर थोड़ी बातें करे, पर वैष्णवी हमेशा व्यस्त रहती—कभी मोबाइल में, कभी अपनी चीज़ों को संभालने में। ससुर जी कई बार घर के छोटे-मोटे कामों में उसकी मदद माँगते, पर वह यह कहकर टाल देती कि उसे स्कूल का प्रोजेक्ट पूरा करना है।
सृष्टि, जो खुद कॉलेज की पढ़ाई कर रही थी, अक्सर भाभी के पास बैठकर बातें करना चाहती, पर वैष्णवी उसे भी टाल देती। मायके के किसी समारोह में जाने की बात आती, तो वह पूरे उत्साह से तैयार होती, लेकिन जब ससुराल में कोई पूजा या आयोजन होता, तो उसे वही सब रस्में बेकार लगतीं।
"टूटते रिश्तों की गूंज"
एक दिन घर में एक दुर्घटना हुई। उषा देवी बाथरूम में फिसलकर गिर गईं। प्रद्दुम्न और सृष्टि दौड़े-दौड़े उनके पास पहुँचे, पर वैष्णवी तब भी अपने अलमारी की सफाई में व्यस्त थी। उसे जब खबर मिली, तो वह भागी-भागी आई, पर तब तक सृष्टि उन्हें अस्पताल ले जा चुकी थी।
उस रात घर में सन्नाटा था। उषा देवी बिस्तर पर थीं, और प्रद्दुम्न गहरी सोच में डूबे हुए थे।
उन्होंने पहली बार वैष्णवी से सीधे सवाल किया—
"तुम इतनी चीज़ों का ध्यान रखती हो, हर बर्तन, हर साड़ी को संभालकर रखती हो, लेकिन क्या कभी इन रिश्तों को भी संजोने की कोशिश की?"
वैष्णवी चौंक गई। उसने कोई जवाब नहीं दिया। अगले दिन जब उसने अलमारी खोली, तो उसे लगा कि ये सारी चीज़ें कितनी सुरक्षित हैं, पर उसके अपने रिश्ते कितने असुरक्षित हो चुके हैं।
परिवर्तन का आरंभ
उस दिन के बाद वैष्णवी में एक बदलाव आया। उसने पहली बार अपनी अलमारी की सफाई छोड़कर उषा देवी के पास बैठकर उनसे बातें कीं। सृष्टि के कॉलेज की कहानियाँ सुनीं, और ससुर जी के लिए चाय बनाई।
उसने महसूस किया कि रिश्ते भी उन्हीं महंगी चीज़ों की तरह होते हैं—अगर उन्हें संभालकर नहीं रखा, तो वे भी समय के साथ फीके पड़ जाते हैं।
अब वैष्णवी को अपनी अलमारी से ज्यादा रिश्तों की फिक्र होने लगी थी।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से" (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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