कहाॅं से मिले ज्ञान
सृष्टि हुई श्रेष्ठता हेतु जन की ,होश संभालते भूला भगवान ।
स्वयं हुआ ईर्ष्या द्वेष से ग्रसित ,
अहंकारवश वह हुआ हैवान ।।
निजता हेतु वह लोभ बढ़ाया ,
खो बैठता निज वह पहचान ।
अज्ञानता वश हैवान बना वह ,
बन न सका वह नेक इंसान ।।
स्वयं इंसान तो बन न सका है ,
कैसे जाने क्या होता इंसान ?
पशु पक्षी सम जन्म लिया है ,
क्या जाने कब तक मेहमान ?
जन्म लिया खेलकूद में बीता ,
जवाॅं होते भूल बैठा भगवान ।
मातपिता का जब गणना नहीं ,
कैसे बन पाता नेक इंसान ।।
पहचान न सका कुल अपना ,
रख न सका है कुल अरमान ।
बंद पड़ा जब कपाट द्वार का ,
कैसे कहाॅं से उसे मिले ज्ञान ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
छपरा ( सारण )बिहार ।
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