प्रयागराज
अभी प्रयागराज में महाकुम्भ मेला चल रहा है। प्रयागराज में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती नदी के संगम के अलावा कई महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं। इनमें महर्षि भारद्वाज आश्रम सबसे महत्वपूर्ण है। इसकी महत्ता इसलिए सर्वाधिक है, क्योंकि त्रेतायुग में अपने वनगमन के समय भगवान श्री राम अपनी पत्नी सीता और अपने छोटे भाई लक्षमण के साथ भारद्वाज आश्रम आये थे। महर्षि भारद्वाज ने भगवान राम का अपने आश्रम में बड़े ही प्रेम से स्वागत किया था। पुनः भगवान श्री राम को मनाकर वन से अयोध्या लौटाने के लिए जब भरत जी चित्रकूट गये थे, तो रास्ते में वे भी महर्षि भारद्वाज आश्रम गए थे और महर्षि भारद्वाज का दर्शन किये थे। आश्रम के शान्त वातावरण में महर्षि भारद्वाज ने आश्रम में आए भरत और उनके साथियों का स्वागत किया था।
महर्षि भारद्वाज ज्ञान- विज्ञान, वेद -पुराण, धनुर्वेद , आयुर्वेद और विमान शास्त्र के जानकर आचार्य थे। उनका गुरूकुल आश्रम विद्या और शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र था।
वन जाते समय भगवान राम जब प्रयाग पहुंचे थे, तो उन्होंने प्रयाग का वर्णन अपने भाई लक्षमण,पत्नॊ सीता और सखा निषादराज से कुछ इस प्रकार किया था, जो श्रीरामचरितमानस में मिलता है :-
प्रात प्रातकृत करि रघुराई।
तीरथराज दीख प्रभु जाई।।
सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी।
माधव सरिस मीतु हितकारी।।
चारि पदारथ भरा भंडारू।
पुन्य प्रदेश देस अति चारू।।
क्षेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा।
सपनेहुँ नहीं प्रतिपच्छिन्ह पावा।।
सेन सकल तीरथ बर बीरा।
कलुष अनीक दलन रनधीरा।।
संगमु सिंहासन सुठि सोहा।
छत्रु अखयबटु मुनि मन मोहा।।
चवंर जमुन अरु गंग तरंगा।
देखि होहिं दुख दारिद भंगा।।
सेवहिं सुकृती साधु सुचि,
पावहिं सब मन काम।
बंदी बेद पुरान गन,
कहहिं बिमल गुन ग्राम।।
को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।
अस तीरथपति देखि सुहावा।
सुख सागर रघुबर सुखु पावा।।
कहि सिय लखनहि सखहि सुनाई।
श्रीमुख तीरथराज बढ़ाई।।
करि प्रनामु देखत बन बागा।
कहत महातम अति अनुरागा।।
एहि बिधि आइ बिलोकी बेनी।
सुमिरत सकल सुमंगल देनी।।
मुदित नहाइ कीन्हि सिव सेवा।
पूजि जथाबिधि तीरथ देवा।।
तब प्रभु भारद्वाज पहिं आए।
करत दंडवत मुनि उर लाए।।
मुनि मन मोद न कछु कहि जाई।
ब्रह्मानंद रासि जनु पाई।।
महर्षि भारद्वाज आश्रम के अलावा जिस अक्षयवट का वर्णन श्रीरामचरितमानस में मिलता है, और जिसे भगवान श्री राम ने भी वर्णन किया है, वह त्रिवेणी संगम से कुछ ही दूरी पर प्रयागराज के अकबर के किले में आज भी खड़ा है। भगवान श्री राम इस वृक्ष के नीचे कुछ समय के लिए रूके थे। अक्षय का शाब्दिक अर्थ है जो कभी नष्ट नहीं होता। ऐसी मान्यता है कि अक्षयवट का कभी नाश नहीं होता है। मुगल काल में इसे काटने का अनेक पर्यत्न किया गया था, पर यह नष्ट नहीं हुआ। जय प्रकाश कुवंर
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