शीत का बस अंत बसंत
शीतल बयार है मन भाया ,विहग प्रात है शोर मचाया ,
ऋतुराज रूप में आया संत ,
शरद का अब हुआ है अंत ।
शीत का देखो हटा ये पहरा ,
छॅंटा है ओस की बूॅंदें गहरा ,
बह रही कैसी शीतल बयार ,
शरद ऋतु ने लिया किनार ।
माॅं सरस्वती का करके वंदन ,
बसंत का हुआ है अभिनंदन ,
दरश कराया सनातनी पंत ,
देखो आया यह संत बसंत ।
सूरज भी अब धीमे गरमाया ,
धूप भी धीमा ये ताप बढ़ाया ,
जीवों को अब उर्जा देकर ,
जीव जीवन जोश बढ़ाया ।
बुजुर्गों का जीवन है खिला ,
एक वर्ष जीवन दान मिला ,
बाल वृद्ध का है हर्ष अनंत ,
शीत का बस अंत बसंत ।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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