सुगंध महक , खुशबू
जैसे मानव में सज्जन दुर्जन ,वैसे ही होता है सुगंध दुर्गंध ।
सुगंध पाकर प्रसन्नचित्त होते ,
दुर्गंध के सहन न होते गंध ।।
वैसे ही सज्जन की पूजा होती ,
सज्जन फैलाते सबमें प्यार ।
दुर्गंध सा ही दुर्जन भी होते ,
दुर्जन को जन जन करे इन्कार ।।
सुगंध दुर्गंध दोनों होते गंध ,
सुगंध को मिले सर्वत्र सम्मान ।
दुर्गंध दर दर ठोकरें है खाता ,
दुर्गंध को मिले सर्वत्र अपमान ।।
सुगंध पा मानव है निखरता ,
ऑंखों का तारा बन जाता है ।
दुर्गंध पा मानव है बिखरता ,
सूखी लकड़ी सा तन जाता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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