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लंकापति की वह अंतिम रात्रि

लंकापति की वह अंतिम रात्रि

- मनोज कुमार मिश्र
महारानी की जय हो - प्रहरी ने लंका की महारानी के द्वार पर आकर आवाज़ लगाई।
उत्सुल और शोक विह्वल नयन लिए मंदोदरी उपस्थित हुई। अभी कल के ही युद्ध में लंकापति रावण के भ्राता कुम्भकर्ण की मृत्यु का संवाद प्राप्त हुआ था। समूची लंका शोक के साथ भय में डूबी हुई थी- कहो दूत क्या समाचार लाये हो।
महारानी समाचार कुछ अच्छा नहीं है। लंकापति ने कल स्वयं युद्ध के लिए प्रस्तुत होने का निर्णय किया है। आप अनहोनी को टाल सकती हैं।
घृष्ट सेवक तू जानता है तू क्या कह रहा है। लंकापति तीनों लोकों के स्वामी हैं। अपार भुजबल और असंख्य दिव्यास्त्रों से उन्होंने सभी को पराजित किया है। अगर उन्होंने कुछ निर्णय लिया है तो वह लंका के कल्याण का होगा। दशानन सा वीर चाहे विजयी होता है या वीगति को प्राप्त होता है। दोनों में ही उनकी कीर्ति है, तुम अनावश्यक उनकी कीर्ति, बल और पौरुष पर संदेह कर रहे हो। तुमको इसका दंड भी मिल सकता है।
क्षमा महारानी, क्षमा युद्ध के अभी तक के परिणाम देखकर थोड़ा विचलित हो गया था।
उचित कथन, तुम प्रस्थान करो।
दूत अपने राह वापस लौट गया।
मंदोदरी गहन चिंता में डूब गई। यह तो सीधा अनिष्ट को आमंत्रण है। परंतु महाराज रावण तो ज्योतिष शास्त्र के भी प्रकांड पंडित हैं। शनि को अपने चरणों से दाब कर रखते हैं। फिर उन्होंने कैसे इस पर मंथन न किया हो ऐसा हो नहीं सकता। आज महाराज कक्ष में आएंगे तो पूछूँगी जरूर। सारे बंधु बांधव, पुत्र पौत्र सभी तो इस युद्ध मे खेत रहे हैं। क्या अब स्वयं दशानन की बारी है।
मंदोदरी कोई साधारण कन्या नहीं थी, महान शिल्पकार मय दानव की अद्वितीय रूप रंग की अत्यंत बुद्धिमती सुंदरी थी। इतने बड़े काल मे लंका को कभी कोई भेद भी नहीं सका, आक्रमण तो बड़ी दूर की बात थी।
संध्या के समय भोजन के उपरांत महाराज रावण अपने कक्ष में पहुंचे तो मंदोदरी ने यथोचित आदर सत्कार के उपरांत कुशल क्षेम पूछी। रावण त्रिकाल दर्शी तो थे पर स्त्री के मन को पढ़ पाना तो विधाता के लिए भी संभव न था। कहो महारानी आज कुछ व्यथित लग रही हो। लगता है युद्ध के समाचार तुम तक पहुंच रहे हैं। हाँ भ्राता कुम्भकर्ण की मृत्यु का हमें भी दुख है पर अंतिम विजय हमारी ही होगी। तुम व्यर्थ चिंता न करो।
एक ओर आप मुझे महारानी कहते हैं और दूसरी ओर आपने राम प्रिया को पाने के लिए उसे पटरानी बनाने का भी दांव खेला डाला। अब मैं खुद को क्या समझूँ - एक महारानी या आपके महल की कोई साधारण सी रानी - मंदोदरी का स्वर तिक्त था। मुझे सिर्फ अपने सुहाग की चिंता नहीं है मुझे पूरी राक्षस समाज की स्त्रियों की चिंता है जो आपकी इस व्यक्तिगत दुराग्रह से अपने दुर्भाग्य को भोग रही हैं। हमारे सभी पुत्र वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं। सभी भ्राता काल कलवित ही चुके हैं। अगर आप जीत भी गए तो क्या? मेरा तो आँचल ही फट गया, अश्रुओं की धार सूखने का नाम ही नहीं लेती। नाथ क्या आप सचमुच नहीं जानते थे कि युद्ध का यह परिणाम होगा। आप तो ज्योतिष शास्त्र में भी सिद्धहस्त हैं, फिर स्वयं युद्ध में उतरने का निर्णय क्यूँ? क्या आप नहीं जानते कि उस अयोध्यावासी के मुकाबले बहुत वृद्ध हैं। माना कि कभी आपने अपनी भुजाओं से कैलाश हिला दिया था पर क्या आज वह संभव है? आप उस वनवासी से क्यूँ उलझना चाहते हैं।
रावण ने मंदोदरी को अपनी बाहों में भर लिया। उसकी रत्नारी आँखों को अपने वस्त्र की कोर से पोछते हुए कहा - प्रिये तुम जो कह रही हो उसमे कुछ भी असत्य नहीं है।
हाँ, मुझे जब अक्षयकुमार की मृत्यु का समाचार मिला था मैं तभी चिंतित हो उठा। अक्षयकुमार सा बलवान जिसकी भुजाओं में सैकड़ो हाथियों का बल था वह एक वानर से युद्ध मे कैसे पराजित हो वीरगति को प्राप्त हो गया। तभी मैंने इस पर ध्यान दिया। जो परिणाम मेरे समक्ष आये उनसे मैं अचंभित ही उठा था। तुम विश्वास करोगी यह जो रामचंद्र हैं स्वयं नारायण के अंश हैं। अब सोच कर देखो मैं विश्रवा ऋषि पुत्र अपने लिए इससे अच्छा क्या अंत सोच सकता था। मेघनाथ स्वयं शेषनाग के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ। कुम्भकर्ण को लेने नारायण खुद आये। अब अगर मैं युद्ध में न जाऊं तो कायर कहलाऊंगा और युद्ध मे अगर वीरगति को प्राप्त हुआ तो स्वर्ग में भी मेरी जयजयकार होगी। रही बात माता सीता की तो वह तो मेरे नारायण से मिलने का निमित्त थीं। मंदोदरी रावण के मुंह से माता सीता सुन कर स्तब्ध रह गयी।
यह क्या कह रहे हैं आर्य। आपने तो उनका हरण किया था और 30 दिन का समय भी दिया था कि वे आपका विवाह प्रस्ताव मान लें अन्यथा आप उनका वध कर देंगे।
बात तो तुम्हारी सही है सुमुखि परंतु यह तब की बात थी जब मैं अपने त्रिलोकजयी होने के भ्रम में जी रहा था। अक्षय की मृत्यु के उपरांत जब मैंने ज्यातिष संहिता की मदद ली तब जान पाया कि वे नारायणी हैं और जिस सीता को मैं हर लाया था वह तो उनकी प्रतिमूर्ति मात्र हैं। इससे मेरा अपराधबोध खत्म तो नहीं पर थोड़ा कम हो गया।यह तो रावण के जीवन का अनोखा पहलू था जिससे वह भी भिज्ञ न थी। कहने को अब कुछ बचा न था। उसने रावण को आलिंगन में लेते हुए कहा नाथ जाइये निश्चिंत होकर युद्ध कीजिये मैं आपकी विजय की प्रार्थना करूंगी। जय या पराजय दोनों ही स्थितियों में मैं अपने सतीत्व का निर्वाह करूंगी। यह तो उसके सामने अब आईने की तरह साफ था कि परिणाम क्या होना है। लंका की यह रात उसपर बहुत भारी पड़ने वाली थी। बाहर और भीतर दोनों तरफ अंधेरा गहराता जा रहा था।
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