पाप की गठरी और कुंभ स्नान : प्रदीप कुमार "प्राश "
पटना से दिव्य रश्मि के उपसम्पादक जितेन्द्र कुमार सिन्हा की खबर |
धार्मिक होना और धार्मिक होने का दिखावा करना दो अलग बातें हैं । आम जिंदगी में सुःख और शान्ति की चाह में ही व्यक्ति धर्म का अनुसरण करता है, धर्म तो एक ही है जिसकी मंजिल उस परमेश्वर को जानना है, पर एक ही मंजिल के लिए अलग अलग राह बना कर उन्हें विभिन्न धर्म के नाम दे दिए गए हैं पर धर्म की राह किसी भी पंथ से गुजरे उद्देश्य एक ही है।
इस महाकुंभ में करीब चालीस करोड़ लोग मोक्ष के लिए डुबकी लगा कर पाप धोएंगे। यदि मैं तटस्थ हो कर देखूं तो कुंभ में जाने वाले सारे लोग धर्मिष्ठ, मोक्ष के आकांक्षी कहलाना पसंद करेंगे, पर यदि ये कुंभ में सुख, शान्ति, मोक्ष पाने और पाप धोने जा रहे हैं तो क्या कुंभ में जाने वाले ये लोग अपने आप को अशांत, दुखी, नरक में जाने योग्य पापियों की भीड़ कहलाना पसंद करेंगे? शायद सुनना भी पसंद नहीं करेंगे क्योंकि सच से मुंह मोड़ यह झूठे और दिखावटी लोग हैं। यदि ये सब धर्मिष्ठ, सुखी, शांत और पुण्यशाली हैं तो इन्हें कुंभ में मोक्षदायिनी सरिता में डुबकी लगाने की जरूरत ही क्या है? यह सब तो तमाशा है।
परमात्मा को पाने के अत्यंत ही सरल मार्ग को पाखंडियों ने कठिन कर दिया है, भ्रमित कर दिया है। परमात्मा एक खोज है और हर कोई उसे पाना चाहता है पर तथाकथित धर्म के ठेकेदार लोगों को भ्रमित कर रहे हैं, परमात्मा की राह तो वे दिखा रहे हैं जिन्होंने कभी परमात्मा को नहीं देखा, ना आत्मसाक्षात्कार किया है, तो कैसे अनुयायी हो और किसका अनुसरण कर रहे हो? भेड़ और भीड़ में कोई अंतर नहीं होता है दोनों ही अनुसरण करते हुए चलती हैं इनकी दिशा इनके द्वारा ही तय नहीं होती है।
जानवर और इंसान में अंतर विवेक का है, और विवेक ही ज्ञान है जिससे परमात्मा को पाया जा सकता है। धर्म के ठेकेदारों ने मनुष्य को अंधभक्त बना दिया, विवेक का उपयोग तो करने ही नहीं देते हैं। कभी हमने हमारे दुःख और अशांति के कारण जाने हैं? यदि हम इन कारणों को जान कर इन्हें दूर कर दें तो सुख और शान्ति स्वयं वैसे ही आ जाएंगे जैसे सूर्य के निकलते ही अंधेरे का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। इन कारणों को विवेक दिखाता है पर हम विवेक को जागृत करने के बजाय भाग्य को दोषी ठहरा देते हैं क्योंकि हमें सत्य को जानने के लिए सद्प्रयास करना ही नहीं है।
जिन पापों को हमने किया है, जो दुष्कर्म हमसे हुए हैं उन्हें हमसे बेहतर कोई नहीं जानता क्योंकि हमने ये सारे कर्म लोगों की आंख में धूल झोंक कर और छुप कर किए हैं पर इनको धोने जाने के लिए हम खुले आम धर्मिष्ठ का चोला पहनकर कुंभ में पाप धोने जा रहे हैं। क्या हममें इतनी हिम्मत है कि उन पापों को सबके सामने कह सकें बता सकें? नहीं क्योंकि उन पापों को जानने के बाद हमारा ही समाज हमें सदा के लिए पापी घोषित कर देगा कलंकित कर देगा और कभी भी कलंक के दाग से तुम छूट नहीं पाओगे। यदि कुंभ में स्नान से पाप धुल रहे हैं, मन का मैल भी धुल रहा है, यह हमारी आस्था है तो बरसों बरस से चल रहे इन कुंभ मेलों में कारागृहों के द्वार खोल कर सजायाफ्ता कैदियों के पाप धुला कर इन्हें मुक्त कर देना चाहिए था जो हम नहीं कर रहे हैं यह हमारी कैसी आस्था है? सहूलियत की आस्था है जो पाप जग को मालूम नहीं पड़ पाए वो गंगा में धुल गए और जो पाप जग को मालूम पड़ गए और जग के बनाए नियम ने उसकी सजा दे दी वो पाप गंगा में नहीं धुलेंगे!! यह कैसा विभेद है? सच पूछा जाय तो किसी गंगा की जरूरत नहीं है यदि हम स्वयं अपने पाप और दुष्कर्मों का लेखा जोखा ले कर बैठ जाएं और ईमानदारी से उन कर्मों के कारण हमारी आंखों से पश्चाताप की दो बूंदें भी निकल जाएं तो मन का सारा मैल धुल जाएगा, बारह बरस किसी कुंभ की बाट नहीं जोहना पड़ेगी न कहीं तीर्थ में जा कर डुबकी लगाना पड़ेगी। मन तीर्थ हो जाएगा, मन उजला हो जाएगा।
कबीरदास ने ईश्वर के संदर्भ में सच कहा है खोजी होय तो तुरत मिल जाऊं, एक पल की तलाश में, कहे कबीरा सुनो भाई साधो मैं तो हूं विश्वास रे, मो को कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास।
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