तुम्हें देख चांद भी शर्माता
नेह सिंधु अथाह मधुरिम,पुलक हुलस भाव सरस ।
उमड़ घुमड़ लहर लहर,
रिमझिम रिमझिम बरस ।
स्नेहिल मोहक परिध क्षेत्र,
संबंध अपनत्व निर्झर पाता ।
तुम्हें देख चांद भी शर्माता ।।
प्रति पल व्याकुलता,
तरस तरस दृग वृष्टि।
तृषित तप्त उर पीर,
तपन हर हिय पुष्टि ।
धर मुस्कान आभा मंडल,
जीवन प्रणय सौरभ फैलाता ।
तुम्हें देख चांद भी शर्माता ।।
नीरस शुष्क दग्ध तन मन ,
दर्शन कर आनंद तृप्ति ।
शीतल सजल छाया कंग
अंतरतम आलोक युक्ति ।
प्रेरणा सेतु उत्सविक ज्योत,
उत्साह उमंगी भाव जगाता ।
तुम्हें देख चांद भी शर्माता ।।
पुनीत दर्श परम सौभाग्य,
घट मंदिर सदैव पावन।
संवाद पट मृदु सरस सुधा ,
मानस खुशियां बिछावन
जीवन पथ ललित ललाम,
तृष हृदय मिलन स्वप्न सजाता ।
तुम्हें देख चांद भी शर्माता ।।
कुमार महेन्द्र
(स्वरचित मौलिक रचना)
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