आया-गया था कब वो पता न चला।
डॉ. मेधाव्रत शर्मा, डी•लिट•(पूर्व यू.प्रोफेसर)
आया-गया था कब वो पता न चला।
कब गिरा पर्दा सो पता न चला।
शामोसहर जो खुलता था दरवाजा,
कब मुकफ्फल गया हो, पता न चला।
कौड़ियाँ गिनते रहे ताजिंदगी,
हीरा उम्दा गया खो, पता न चला।
लहजह लहालह शब जागी शमा,
सुबह होते गई सो, पता न चला।
रंगीन होती रही महफिल रात भर,
नींद में हम गए खो,पता न चला।
खेत प्यासा जोहता मुँह रह गया,
बेमुरव्वत अब्र , जो पता न चला।
सदाक़त का हलफ जिसने उठाया,
वही निकला लग्बगो ,पता न चला।
(लग़्बगो=झूठ बोलनेवाला)
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शामोसहर जो खुलता था दरवाजा,
कब मुकफ्फल गया हो, पता न चला।
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हीरा उम्दा गया खो, पता न चला।
लहजह लहालह शब जागी शमा,
सुबह होते गई सो, पता न चला।
रंगीन होती रही महफिल रात भर,
नींद में हम गए खो,पता न चला।
खेत प्यासा जोहता मुँह रह गया,
बेमुरव्वत अब्र , जो पता न चला।
सदाक़त का हलफ जिसने उठाया,
वही निकला लग्बगो ,पता न चला।
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