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कुछ भूल चुका हूँ,

कुछ भूल चुका हूँ,

कुछ भूल रहा हूँ,
धीरे धीरे सब कुछ भूलता जा रहा हूँ।
मैं था तो धरातल का,
मिहनत से कुछ उपर में उठा,
खोजता रहा सुख चैन, पर नहीं पा रहा हूँ।।
जो अपने थे, पीछे छूट गए,
सब रिश्ते नाते टूट ग‌ए ,
कुछ अनजानों से दोस्ती बढ़ती चली गयी।
कुछ से नाता मात्र ढकोसला,
कुछ से मन और दिल भी मिला,
सच्चे झूठे ढकोसलो में, पहचान अपनी मर गयी।।
मैं कुछ और नहीं, केवल मानव था,
और सबमें मानवता खोजता था,
पर यहाँ तो केवल धन और पैसे का बोलबाला था।
जितने भी मिले छली कपटी,
सबकी व्यस्तता केवल छीना झपटी,
पास पड़ोस सब जगह माहौल निराला था।।
मन व्यथित है देखकर मानवरूपी,
ईश्वर की यह अद्भुत रचना।
यहाँ किससे नाता जोड़ना तोड़ना है,
या किस किस से है बचाना बचना।।
अभी घड़ा कच्चा था मैं,
पानी की बूंदें पड़ते ही गल गया।
सोचा था एक दिन पक कर मानव से मनुष्य बनुंगा,
पर दुनिया की रंगत देख, हेकड़ी निकल गया।। 
 जय प्रकाश कुवंर
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