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ब्राह्मण होना उपलब्धि नही जिस पर अभिमान हो और कोई अपराध नही कि ग्लानि करू ।

 ब्राह्मण होना उपलब्धि नही जिस पर अभिमान हो और कोई अपराध नही कि ग्लानि करू ।

मैं जाति से ब्राह्मण हूँ और मेरे लिए यह न तो अहंकार का विषय है न ही शर्मिंदगी का । ब्राह्मण होना उपलब्धि नही जिस पर अभिमान हो और कोई अपराध नही कि ग्लानि करू । मेरे परिचय में एक प्रसिद्ध "दलित वामपंथी लेखक" जिनके लेखन में अनवरत सवर्णों के अत्याचार के खिलाफ एकतरफा बयानबाजियाँ , क्रोध ,उत्तेजना पढ़ने मिलती रही है । जैसे फला गाँव में दलित दूल्हे को घोड़ी से उतार दिया गया ,फला शहर में ब्राह्मण जज ने दलित जज के रिटायरमेंट के बाद कोर्ट परिसर धुलवाया था, फला देहात के श्मशान में मृतक की जाति पूछी गयी , दक्षिण भारत के एक मंदिर में दलित को प्रवेश से रोका गया । इसी कड़ी में एक दिन उंन्होने लिखा कि एक पंडित ने अपने गधे बेटे के एडमिशन के समय शिक्षक से कहा -- " मास्टर साहब जरा ध्यान रखिएगा पंडित का बेटा है ।" आगे उन्होंने बड़ी अभद्रता से लिखा कि ये ब्राह्मण जात के लुटेरे । स्कूल में भी इनको एडवांटेज चाहिए । खुद का लड़का गधा और चमका टीचर को रहा है । मैं यहाँ कहना चाहती हूँ कि पुराने समय में ब्राह्मण दान दक्षिणा पर जीवन यापन करने वाले गरीब स्वर्ण थे । दान से व्यक्ति का सिर्फ गुजारा हो सकता है , सम्पन्नता नही ।आपने अक्सर प्राचीन कहानियों कि शुरुवात इस तरह सुनी होगी "एक गाँव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था ।" आज भी हमारे यहाँ पारिवारिक चर्चा में किसी की दरिद्रता के विषय में अक्सर बोलते है "अरे पंडिताई से तो उनका घर चल रहा है ।" शायद पंडित जी ने शिक्षक को अपनी माली हालत समझाने कहा हो कि उनका बच्चा मानसिक रूप से तो कमजोर है ही लेकिन ध्यान रखना जरा पंडित (विपन्न व्यक्ति )का बेटा है ।
यही बात मैंने उन लेखक जी समझाने की कोशिश की --- सर आप हमेशा कहते है कि देश की हर समस्या की एक मात्र जड़ है "सवर्ण"। मैंने उनसे सवाल किया कि सुदूर किसी देहात में दलित के साथ हुई किसी अनहोनी के लिए "सभी सवर्णों ने देश का नाश कर रखा है , मनुवादियों को इस देश से उखाड़ फेंको " कैसे लिख सकते है ?? यदि आप सच्चे लेखक है तो आपके लेखन में दलितों के प्रति संवेदनाए , सृजनात्मक उपाय या योजनाए क्यों नही है ?? आश्चर्यजनक रूप से दलित नेता या विचारक "जातिमुक्त - भारत"... की खूबसूरत मुहिम के प्रति उदासीन क्यों है ? सरकार से मांग करे कि सर्टिफिकेट में सेकेंड नेम हटाया जाए । । क्या "जातिमुक्त-समाज" उन्हें फायदे का सौदा नही लग रहा है इसलिये इस मुद्दे पर चुप्पी साधे है ?? आप हर समस्या के लिए ब्राह्मण , ठाकुर, बनिया , कायस्थों को जातिगत आधार पर कोसते है ।निरन्तर नकारात्मकता और संकीर्णता आपके लेखन के प्रति एक अरुचि पैदा कर रहा है ।
मैंने सीधा सवाल कियाय- " देश का हर स्वर्ण नागरिक चारित्रिक रूप से गिरा हुआ है ?" उन्होंने बेतुका सा तर्क दिया ... " मधु ब्राह्मण होने का मतलब लूट के संगठित गिरोह का सदस्य होना है । 70 साल पहले रवींद्रनाथ टैगोर आजादी के बाद दलित बस्ती से लौट कर नहाए थे ,.ब्राह्मणों ने गरीब को घी खाने देने की जगह दुरुपयोग मंदिर में दीपक जलवा कर किया ., दलितों ने अपने सर पर मैला ढोया था । "
"हाँ सर सही कहा आपने लेकिन बरसों बरस पहले जिन्होंने ये अत्याचार सहा था वो आप नही और जिन्होंने ये जुल्म ढाया वो मैं नही ।" अदालत भी एक व्यक्ति की मृत्यु के बाद केस खारिज़ कर देती है । 100 साल पहले जिन अनदेखे पूर्वजों ने घी पिया था उससे मेरा मुँह कैसे महक सकता है ??? जिस तरह दंगो का अपराधी एक होता है और उसके धर्म के सभी निर्दोष आताताइयों का शिकार बनते है आज सवर्णो की स्थिति बिल्कुल वैसी ही है । राजनीति इस निचले स्तर पर उतर चुकी है कि दलित नेता हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को चप्पल से कुचल रहे है । मैंने लेखक महोदय से पूछा कि आपने दलित लेखक के रूप में आज तक एक शब्द इस घृणित कृत्य के विरोध में क्यों नही लिखा ? क्या आप जानते है कि मैंने अंबेडकर जी की मूर्ति खंडित होने की घोर निंदा करते हुए समाचार पत्र के लिए लेख लिखा था । मेरे धर्म में आपकी आस्था नही है यहाँ तक मुझे आपत्ति नही लेकिन उस जगह प्रतिरोध है जहाँ प्रायोजित तरीके से मुझे अपमानित करने के ध्येय से आस्था को खंडित किया जा रहा है ।
लेखक महोदय ने आखरी ब्रह्मास्त्र छोड़ा --- मधु देखा आपको ललकारते ही आपके अंदर का ब्राह्मणत्व कैसे बाहर आ गया । मैंने उनसे उतने ही प्रेम से कहा कि सर मैं पिछले दो साल से दिन में चार बार के हिसाब से जहरीले लेख देख रही हूं । पूरी जाति को लम्बे समय से लुटेरा , चोर कहने पर पहली बार शालीन शब्दों में असहमति जताई है। इसमें मेरा कौन सा ब्राह्मणत्व या ठकुराई बाहर आयी पता नही ?? आप खुशफहमी में है कि आपके तर्कहीन लेखों से दलित समाज में क्रांति आ रही है या आप मुझे ललकार पाने में सक्षम है ।
तार्किकता अधिकांश लोगों को पसंद आती है । उन वामपंथी लेखक महोदय के साथ बैठे साथी लेखकों ने जब मेरे पक्ष में हामी भरी तो बेमनी से ही सही मगर उन्होंने कहा - "मधु आपके संयम से मैं प्रभावित हूँ ।" मैंने कहा जब आपकी यह पक्की धारणा है कि सभी सवर्ण लुटेरे , व्यभाचारी और समाज को गर्त में जा रहे है तो मेरा स्वाभिमान कहता है कि जो मुझे गिरी मानसिकता का समझे उनसे मैं दूरी रखूं । देश को सवर्ण अत्याचार से त्रस्त बताते थकते नही उन दलित लेखक महोदय को चरणस्पर्श कर हमेशा के लिए नाता तोड़ा । उनके आखरी शब्द थे -- मधु आपके नाम का अर्थ है "मीठा" लेकिन आप कितनी कड़वी है । मैंने बाहर निकलते हुए कहा -- सही कहा सर सत्य "कड़वा" होता है । मुझे बुरा लगा इसलिये उनसे ताल्लुक समाप्त नही किये बल्कि उन्हें इसलिए छोड़ रही हूं कि उनसे कोई ऐसी रचनात्मकता नही सीख पा रही थी जो मुझे बेहतर इंसान बनाने में मदद कर पाए।
मैं चाहती तो उनके साथ हुई इस तल्ख और अनुत्पादक बहस को सवर्णों को जाति की वजह से मिलने वाले घाटे के अनेक उदाहरण देकर और उग्र बना सकती थी । उन अनगिनत घटनाओं का जिक्र कर सकती थी जहाँ दलितों ने अपने लिए बने कानून का गलत तरीके से फायदा उठाकर निर्दोष सवर्ण व्यक्ति को फँसाया या दलित आईएएस अधिकारियों की लिस्ट दे सकती थी जिनके घर के छापे में करोड़ों की बेनामी संपत्ति मिली फिर भी उनकी संताने आरक्षण ले रही है या स्कूल में खुद से कम नंबर पाने वाले दलित छात्र के मेडिकल में चयन से अवसाद में सवर्ण छात्रों ने आत्महत्या की , सवर्णों को अन्य जातियों के मुकाबले बेरोजगारी का प्रकोप अधिक झेलना पड़ रहा है। यदि लेखक महोदय से कहो कि आरक्षण का आधार आर्थिक किया जाना चाहिए इस पर वे एक अचूक अस्त्र निकालते है -- मधु जी आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नही है । ये सामाजिक भेदभाव दूर करने के लिए दिया गया है । इस पर मेरे पास भी जवाब है कि अगर सामाजिक न्याय चाहिए तो आप मंदिर , मठ और धार्मिक संगठन के पदों में आरक्षण लीजिये तब सामाजिक विसंगतियां दूर होगी । यदि आरक्षण का गरीबी से सम्बन्ध नही तो तरह तरह के "आर्थिक लाभ" जैसे स्कूल की फीस में छूट, मासिक छात्रवृत्ति , प्रतियोगी परीक्षाओं के फार्म की कीमत में 80 प्रतिशत तक की छूट लेना , तमाम व्यवसायिक महाविद्यालयों की फीस में हजारों रुपए की छूट का बहिष्कार करिए । लेखक महोदय ने चतुराई से मेरे सवाल के जवाब को टालते हुए अगला सवाल दागा ।
उनका कुतर्क है "क्या ब्राह्मण अपनी बेटियों से हमारा विवाह करेंगे ?" मेरा जवाब है कि क्या बेटियाँ कोई सामान है जो आपको प्रसन्न करने उठा कर दे दी जाए ? यदि ब्राह्मण लड़की से प्रेम सम्बन्ध है और दोनों बालिग है तो कोई आपको विवाह करने से नही रोक सकता । उनसे मेरा अगला सवाल था कि आप अंबेडकर साहब की पूजा करते है जिन्होंने लिखित में कहा था कि यदि आरक्षण-नीति लम्बी अवधि के लिए चली तो राजनैतिक दल इसका दुरुपयोग करेंगे इसलिए हर हाल 10 साल में आरक्षण खत्म हो जाना चाहिए । आप अपने आराध्य बाबा साहब अंबेडकर का आरक्षण खत्म करने की आज्ञा क्यो नही मान रहे है ...?? एक बार नौकरी में आरक्षण का लाभ लेने के बाद कम से कम पदोन्नति का आधार वरिष्ठता होना चाहिये । स्वार्थसिद्धि के लिए बाबा साहब के विचारों को भी तिलांजलि दे दी ?
आर्थिक रूप से सम्पन्न दलितों के लिए आरक्षण फायदे की राजनीति है , मलाई खाने का अवसर है , दसों उँगलियों के साथ सर घी में डुबाने कढ़ाही है । अपने ही समुदाय के गरीब तबके को फायदा पहुँचाने के लिए भी वे सीट छोड़ने तैयार नही । आरक्षण का प्रतिशत मत घटाइए केवल क्रीमी लेयर को हटा दीजिए । कभी भी मेरे किसी दलित दोस्त ने चाय का आग्रह किया और उस वक़्त चाय की इच्छा न भी हो तो भी मैं पीती हूँ यह सोचकर कि कही वो इसे अन्यथा न ले ले। मैंने हर उस शख्श से तयशुदा दूरी रखी है जो किसी भी जाति या धर्म के खिलाफ कट्टर है ,चाहे वो मेरे रिश्तेदार ही क्यों न हो ? तथाकथिक लेखक महोदय ने एक भी सवाल के जवाब न दे हर दफ़ा एक ही बात हमारे पुर्वजों ने बरसों गुलामी झेली थी। मैंने लेखक महोदय से दूरी बनाई, इसका यह कतई मतलब नही कि पूरे दलित समुदाय के लिए मेरा नजरिया नकारात्मक हो गया ।
गर समाज में समस्या है तो समाधान पर चर्चा हो , कठिनाई है तो सरलता पर बहस हो , मुश्किलें है तो आसानी के संघर्ष पर परिचर्चा हो, दिक्कतें है तो उपायों पर गोष्ठियाँ हो । राजनैतिक दलों को समर्पित लेखक अपने उत्तेजक , जहरीले लेखन से समाज के मूल ढाँचे को तोड़कर स्वयं का हित साध रहे है । राजनैतिक दल सम्पन्न दलितों को आरक्षण का लाभ लेने से रोकने वाला बिल कभी नही लाएंगे क्योकि वे उनके वोट बैंक है । 3700 करोड़ रुपये से ज्यादा की मालकिन मायावती अपनी ही कौम को बरगलाती हुई कहती है .."मैं शोषण का शिकार दलित बेटी हूँ। " बिके लेखक ,पत्रकार , मीडिया, नेता हिन्दू-मुस्लिम नफ़रत को तो पोषित कर ही रहे थे लेकिन अब हिन्दू और दलित विभाजन भी कर रहे है ।एक समय बहुजन समाज पार्टी ने इस लोकप्रिय नारे के बल चुनाव जीत लिया था .....
"तिलक, तराजू और तलवार
इनको मारो जूते चार "
(तिलक -ब्राह्मण, तराजू-बनिया, तलवार - क्षत्रिय )
मैंने लेखक महोदय से इस नारे पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि क्या सवर्णों को जूते मारो यह नारा सही है ?? इस पर उंन्होने पल्ला झाड़ते हुए कहा -- मधु जिन्होंने ये नारा लगाया वह मैं नही हूँ । "सर यही तो कह रही हूँ कि एक गाँव जिसका मैंने नाम तक नही सुना था वहाँ दूल्हे को घोड़ी से उतारा वो मैं नही हूँ और यदि घोड़ी से उतरने के एवज़ में आरक्षण मिलना चाहिए तो लाखों सवर्ण युवक घोड़ी से उतरकर कार में बारात ले जाने तैयार हो जाएंगे । 100 साल पहले जिन्होंने जुल्म सहा था उनके नाम तक आप नही जानते ।सरकार सेना में आरक्षण नही रखती क्योकि यह देश की सुरक्षा से जुड़ा संवेदनशील मामला है , खिलाड़ियों के चयन में आरक्षण नही रखती क्योकि यह अन्याय देश को अंर्तराष्ट्रीय मैदानों में पीछे ले जाएगा लेकिन मेडिकल प्रवेश परीक्षा में न्यूनतम अंकों को भी न पार कर पाने वाले अयोग्य प्रतियोगियों को प्रवेश देना सूचक है कि सरकार गरीबों के जीवन का मोल मिट्टी मानती है । हमारे नेताओं के बच्चें महंगे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते है और नेता अपना ईलाज नामी प्राइवेट हॉस्पिटल में कराते है जहाँ आरक्षण लागू नही है । क्या देश के बच्चों का भविष्य या नागरिकों का अमूल्य जीवन प्रयोग की वस्तु है ? "शिक्षा" और "चिकित्सा" जैसी संवेदनशील , आधारभूत आवश्यकता की पूर्ति आप औसत से भी कम अंक लाए प्रतियोगी को दे सकते है ? आरक्षण के नाम पर एक अयोग्य सरकारी शिक्षक के हाथ देश के नौनिहालों का भविष्य सौंप देना सही है ????
महिलाओं पर हो रहे बलात्कार को देखते हुए सम्पूर्ण पुरुष समाज को दंडित करना चाहिए ??? एक अपराधी की मृत्यु के पश्चात उसकी संतानों को भी सजा दी जानी चाहिए ??? बावजूद इसके हमें दलित भाइयों से कोई शिकायत नही क्योकि सड़कों पर उत्तेजना भरे नारे , बेराजगार समर्थकों के साथ उन्मादी जुलूस और भड़काऊ भाषण हर समुदाय में चुनिन्दा धार्मिक या जातिमुग्ध नेता कर रहे है ।आम नागरिक को रोटी की जुगाड़ से फुर्सत नही। राजनैतिक दल इन नफरतों से ही चुनाव जीतते है । वे हर रोज अपने समुदाय और जाति को भड़का कर इस खाई को गहरा करेंगे । दलित समाज का क्रीमी लेयर अपने ही तबके के लिए जगह छोड़ने तैयार नही । आजादी के 70 सालों बाद आज यह परिस्थिति आ चुकी है कि आरक्षण नीति में बदलाव कर करोड़पति दलितों के "क्रीमी लेयर" को आरक्षण का अनैतिक लाभ लेने के अवसर से बाहर किया जाए ताकि वे दलित जो सचमुच जातिगत भेदभाव के शिकार है विशेषकर ग्रामीण इलाकों में और गरीब तबके के जो वास्तविक हकदार है को उनका जायज़ हक़ मिले ।
लेखिका श्रीमती मधु जी के वाल से

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